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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश उत्तमपुरुष वह पुरुष, जो अपने क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट होता है। जैसे-धर्म के क्षेत्र में अर्हत्, भोग के क्षेत्र में चक्रवर्ती और कर्म के क्षेत्र में वासुदेव। उत्तमपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, कम्मपुरिसा। धम्मपुरिसा अरहंता, भोगपुरिसा चक्कवट्टी, कम्मपुरिसा वासुदेवा। (स्था ३.३३) उत्कृष्ट गीतार्थ वह मुनि, जो चतुर्दशपूर्वी होता है। गीतार्थाः.....चतुर्दशपूर्विणः पुनरुत्कृष्टाः । (बृभा ६९३ वृ) । उत्कृष्ट चिरप्रव्रजित वह मुनि, जो बीस वर्षों से दीक्षित है। चिरप्रव्रजितः.....विंशतिवर्षप्रव्रजित उत्कृष्टः। (बृभा ४०३ वृ) उत्कृष्ट बहुश्रुत १. वह मुनि, जो नवम और दशम पूर्व का धारक होता है। उत्कृष्टो नवम-दशमपूर्वधरः। (बृभा ४०२ वृ) २. वह मुनि, जो चतुर्दश पूर्वो का धारक होता है। (द्र मध्यम बहुश्रुत) उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदय वे कर्म-प्रकृतियां, जिनका पहले उदयव्यवच्छेद होता है और बाद में बंधव्यवच्छेद होता है, जैसे-अयश: कीर्तिनाम, वैक्रियशरीरनाम आदि। पूर्वमुदयः पश्चाबन्ध इत्येवमुत्क्रमेण व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ताः उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः। (कप्र पृ ४२) उत्तरकुरु महाविदेह का वह क्षेत्र, जो मंदरपर्वत से उत्तर में, नीलवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में और माल्यवान पर्वत से पश्चिम में स्थित है। यह कर्मभमि में स्थित होने पर भी अकर्मभूमि है। मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, गंधमायणस्स, वक्खारपव्ययस्स पुरस्थिमेणं, मालवंतस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता। (जं ४.१०८) देवकुरूत्तरकुरवस्तु कर्मभूम्यभ्यन्तरा अप्यकर्मभूमय इति। (तभा ३.१६) उत्तमक्षमा दशविध श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला सहिष्णता का प्रयोग। उत्तमत्वं क्षमेति क्षमणं-सहनं परिणाम आत्मनः शक्तिगतः। (तभा ९.६७) उत्तमधर्म प्रकर्षप्राप्त क्षमा आदि दस धर्म, जो मनि के द्वारा आचरणीय उत्तरगुण १. स्वाध्याय आदि। उत्तरगुणान्--मूलगुणापेक्षया स्वाध्यायादींस्तत्कालोचितान्। (उशावृ प ५३६) २. आचार के सहायक नियम, जैसे-दस प्रत्याख्यान। उत्तरगुणा:-दशविधप्रत्याख्यानरूपाः। (भग २५.३०८ वृ) ३. मूल गुण के संपोषक पिण्डविशुद्धि आदि नियम। उत्तरगुणाः-पिण्डविशुद्ध्यादयः। (प्रसा ७२९ वृ प २१२) उत्तरगुणकल्पिक वह मुनि, जो उद्गम, उत्पादन और एषणा से परिशुद्ध आहार, उपधि और शय्या का नियत रूप में ग्रहण करता है। य आहारोपधिशय्या उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धाः 'नियतं' निश्चितं परिगृह्णाति स खलूत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः । (बृभा ६४४४ वृ) उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः। (तसू ९.६) उत्तमो धर्मः प्रकर्षयोगात्। क्षमादयो हि उत्तमविशेषणविशिष्टस्तादृशाश्चागारिणो न सन्ति।"क्षमादयः""समुदिता एवोत्तमो धर्मः। (तभा ९.६७) (द्र यतिधर्म) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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