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________________ ४६ पवत्तइ । (प्रज्ञा १६.४० ) २. मुक्त जीव की गति, जिसमें मुक्त जीव अन्तरालवर्ती आकाशप्रदेशों का स्पर्श किये बिना गति करता है। अस्पृशन्ती — सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः । (औपवृ प २१६ ) ३. एक सामयिकी गति, जो द्वितीय समय और द्वितीय प्रदेश का स्पर्श किए बिना होती है। गतिश्च समयान्तरं प्रदेशान्तरं वाऽस्पृशन्ती भवति । (तभा १०.५ वृ) अस्वाध्यायिक जिसमें आगम का स्वाध्याय न किया जा सके, वैसा देश और काल । न स्वाध्यायिकमस्वाध्यायिकं तत्कारणमपि च रुधिरादिकारणे कार्योपचारात् अस्वाध्यायिकमुच्यते । ( आवहावृ २ पृ १६१ ) अहमिन्द्र (द्र कल्पातीत देव) अहिंसा प्राणों का हनन न करना, प्राणीमात्र के प्रति संयम करना और अप्रमत्त रहना । प्राणानामनतिपातः सर्वभूतेषु संयमः अप्रमादो वा अहिंसा । (जैसिदी ६.७ ) (द ६.८) अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएस संजमो ॥ अहिंसा महाव्रत ( प्रज्ञा २.६० ) (द्र सर्वप्राणातिपातविरमण ) अहिंसा संवर (द्र सर्वप्राणातिपातविरमण ) ( उ २१.१२) ( प्रश्न ६.१.२ ) अहेतुगम्य आगमगम्य । वह पदार्थ, जो हेतु अथवा तर्क का विषय नहीं ( जैमी १.६ पृ १४० ) बनता । Jain Education International जैन पारिभाषिक शब्दकोश अहेतुवाद प्ररूपणा का वह सिद्धान्त, जहां हेतु अथवा तर्क का प्रयोग नहीं किया जाता। (द्र हेतुवाद) अहोविहार संयमयात्रा । विषय - परिग्रह आदि के बंधन से मुक्त व्यक्ति की जीवन-यात्रा| इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए । अहोविहार:''''विषयपरिग्रहादेः बन्धनं छित्त्वा ये जीवनयात्रायां प्रस्थिता भवन्ति । (आभा २.१० ) आ आकम्प्य आलोचना आलोचना का एक दोष। सेवा आदि के द्वारा प्रायश्चित्त देने वाले की आराधना कर आलोचना लेना । वेयावच्चाईहिं पुव्वं, आगंपइत्तु आयरिए । आलोएइ कहं मे, थोवं वियरिज्ज पच्छित्तं ॥ (स्था १०.७० वृ प ४६० ) आकर्ष आयुष्य कर्म के बंध के समय प्रयत्नपूर्वक किया जाने वाला कर्म-पुद्गलों का ग्रहण | आकर्षो नाम तथाविधेन प्रयत्नेन कर्मपुद्गलोपादानम् । (प्रज्ञावृ प २१८) जीवा णं भंते! जातिणामणिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं अट्ठहिं ॥ (प्रज्ञा ६.१२० ) For Private & Personal Use Only आकाशातिपाती वह मुनि, जो आकाशगामिनी विद्या अथवा पादलेप आदि के प्रभाव से आकाश में यात्रा कर सकता है तथा आकाश से स्वर्ण-वृष्टि आदि कर सकता है। आकाशं - व्योमातिपतन्ति — अतिक्रामन्ति आकाशगामिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीला आकाशातिपातिनः । ( औप १.२४ वृ प ५४ ) www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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