SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २. पर्यालोचनपूर्वक करणशक्ति से शून्य प्राणी का श्रुत। ३. मिथ्यादृष्टि का श्रुत। (द्र असंज्ञी) असंवृतबकुश बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो प्रकट रूप में शरीर और उपकरण की विभूषा करता है। शरीरोपकरणभूषयोः"""प्रकटकारी असंवृतबकुशः। (स्था ५.१८६ वृ प ३२०) असंव्यवहार्य (द्र स्थाप्य) असंसक्तवासवसतिसमितियोग (प्रश्न ९.७) (द्र संसक्तशयनासन वर्जन) असंज्ञी १. जिसके ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श नहीं होता, वह कालिकी उपदेश संज्ञा (मन) की अपेक्षा से असंज्ञी है। जस्स णं णस्थि ईहा, अपोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिंता, वीमंसा-से णं असण्णीति लब्भइ। (नन्दी ६२) २. जिस जीव में पर्यालोचनापर्वक करणशक्ति नहीं होती.. वह हेतु उपदेश संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी है। जस्स णं नत्थि अभिसंधारणपुब्विया करणसत्ती-से णं असण्णीति भण्णई। (नन्दी ६३) ३. वह व्यक्ति, जो मिथ्यादृष्टि सम्पन्न है। मिच्छाद्दिट्टी असण्णी भणितो। (नन्दीचू पृ ४७) असंदिग्ध अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार । विषय को संशय रहित ग्रहण करना, जैसे-स्पर्श के आधार पर जानना कि यह स्त्री असंसारसमापन्न वह जीव, जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो चुका है। असंसारसमापन्ना मुक्ताः । (प्रज्ञा १.१० वृ प १८) असंसृष्ट पिण्डैषणा का एक प्रकार। देय वस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना। तंमि य संसट्ठा हत्थमत्तएहिं इमा पढम भिक्खा। तविवरीया बीया भिक्खा गिण्हंतयस्स भवे॥ (प्रसा ७४०) (द्र संसृष्ट) निश्चितं सकलसंशयादिदोषरहितमिति, यथा तमेव योषिदादिस्पर्शमवगृह्णत् ज्ञानं योषित एव। (तभा १.१६ वृ) ..."निस्संकितं होतऽसंदिद्धं॥ (व्यभा ४१०८) असम्भवी लक्षणाभास का एक प्रकार । वह लक्षण, जो अपने लक्ष्य में अंशतः भी नहीं मिलता, जैसे-पदगल का लक्षण चैतन्य। लक्ष्यमात्रावृत्तिरसंभवी। यथा-पुद्गलस्य चेतनत्वम्। (भिक्षु १.९ वृ) असंवृत अनगार १. वह साधु, जो आश्रव का निरोध नहीं कर रहा है। 'असंवृतः' अनिरुद्धाश्रवद्वारः'अणगारे'त्ति अविद्यमानगृहः, साधुरित्यर्थ। (भग १.४४ वृ) २. मन, वाणी और काय का संवर नहीं करने वाला, उत्तरगुण में दोष लगाने वाला। (भभा खं. १ पृ ४०) ३. संयम से च्युत होने वाला। (भजो १.६.३४) असत् सत् का प्रतिपक्ष, जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से शून्य है। उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सत॥ (भिक्षु ६.२) तदितरदसत्॥ यन्नोपपद्यते, नव्येति, नच ध्रुवं, तदसत्, यथा आकाशकुसुमम्। (भिक्षु ६.३ वृ) (द्र सत्) असतीपोषण कर्मादान का एक प्रकार । तीतर, तोता, मैना तथा दास-दासी का पोषण कर उनके विक्रय द्वारा आजीविका चलाना। सारिका-शुक-मार्जार-श्व-कुक्कुट-कलापिनाम्। पोषो दास्याश्च वित्तार्थमसतीपोषणं विदुः॥ ___ (योशा ३.११२) असत्यो दुःशीलास्तासां दासीसारिकादीनां पोषणं पोषोऽसतीपोषः। (प्रसावृ प ६३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy