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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश 'अव्याबाधम्'–उपरतसकलपीडं मौक्तम्। अशुभप्रकृति (उशावृ प ५७८) वह कर्म-प्रकृति, जो अशुभ (विषाद के निमित्तभूत) रस से युक्त होती है, जैसे-असातवेदनीय, नीचगोत्र आदि। अव्युच्छित्तिनय नास्ति शुभो रसो यासु ता अशुभाः। (कप्र पृ ३४) (भग ७.९४) (द्र द्रव्यार्थिकनय) अशुभयोग मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्ति, जिससे पापकर्म का अशन बंध होता है। आहार का एक प्रकार। ."अशुभयोग:-असत्प्रवृत्तिः, स च अशुभकर्मपुद्गलान् वह द्रव्य, जिससे क्षुधा की निवृत्ति होती है। जैसे कूर, आकर्षति। (जैसिदी ४. २६ वृ) ओदन आदि। अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः। (तवा ६.३) असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति। (दजिचू पृ १५२) अशुभ अनुप्रेक्षा अशबल शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षा का एक प्रकार । पदार्थों की अशुभता स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था, जो स्नातक निर्ग्रन्थ के का अनुचिन्तन करना। निरतिचार चारित्र की सूचक है। 'असुभे'त्ति अशुभत्वं संसारस्येति गम्यते। धी संसारो जंमि जुयाणओ परमरूवगव्वियओ। निरतिचारत्वादशबलः। (स्था ५.१८९ वृ प ३२०) मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कडेवरे नियए॥ अशरण अनुप्रेक्षा (स्था ४.७२ १ प १८१) दूसरी अनुप्रेक्षा । दुःख से घिरे हुए संसार में धर्म के सिवाय अशोक वृक्ष कोई शरण नहीं है-ऐसा अनुचिन्तन करना। महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। देवकृत अतिशय। तीर्थंकर जन्मजरामरणव्याधि"मरणसमुत्थेन दुःखेनाभ्याहतस्य नीलाभ अशोक (कंकेल्लि) वृक्ष के नीचे सिंहासन पर आसीन जन्तोः संसारे शरणं न विद्यत इति चिन्तयेत्। (तभा ९.७) होते हैं। अशरीरप्रतिबद्ध जस्थ जत्थवि य णं अरहंता भगवंतो चिटुंति वा निसीयंति वा, तत्थ तत्थवि य णं"असोगवरपायवो अभिसंजायइ। वह जीव, जो शरीर से मुक्त हो चुका है। (स्था ७.७८) (सम ३४.१.११) अशुचित्व अनुप्रेक्षा असोगवरपायवं जिणउच्चत्ताओ बारसगुणं सक्को विउव्वति। छठी अनुप्रेक्षा। शरीर की अशुचिता का अनुचिन्तन । रक्त, __ (आवचू १ पृ ३२५) मल, मूत्र, वल्गम आदि से भरा हुआ यह शरीर अशुचि का भंडार है-ऐसा अनुचिन्तन करना। अश्रुतनिश्रितमति अशुचि खल्विदं शरीरमिति चिन्तयेत्""निर्विण्णश्च शरीर मतिज्ञान का एक प्रकार । आगम या अन्य किसी उपदेश का प्रहाणाय घटत इति अशुचित्वानुप्रेक्षा। (तभा ९. ७) आश्रय लिए बिना होने वाला सहज ज्ञान । सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव अशुभनाम यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शि मतिज्ञानमुपजायते तद् अश्रुतनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से नाभि के नीचे के । (नन्दी ३७ मवृ प १४४) अवयव अशुभ होते हैं। यदुदयवशात् नाभेरधस्तना पादादयोऽवयवा अशुभा भवन्ति । अश्रुत्वाकेवली तदशुभनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) ___ असोच्चाकेवली, जो किसी भी सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं है, निश्रितम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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