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________________ ३६ अलाभ परीषह परीषह का एक प्रकार । अभीष्ट वस्तु के न मिलने पर होने वाली खिन्नता, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्टिए । लद्धे पिंडे अलद्धे वा नाणुतप्पेज्ज संजए ॥ अजेवाहं न लब्धामि अवि लाभो सुए सिया । जो एवं पंडिसंविक्खे अलाभो तं न तज्जए ॥ ( उ २.३०, ३१) अलोक वह आकाशखण्ड, जिसमें आकाश के अतिरिक्त धर्मास्तिकाय आदि कोई द्रव्य नहीं होता । ''अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ॥ (उ ३६.२) शेषद्रव्यशून्यमाकाशमलोकः । (जैसिदी १. १३) अलोकाकाशश्रेणि अलोकाकाश के प्रदेशों की पंक्तियां, जो पूर्व-पश्चिम-आयत, दक्षिण-उत्तर - आयत और ऊर्ध्व-अधः- आयत होती हैं, द्रव्य से अनंत होती हैं। अलोगागाससेढीओ णं भंते! दव्वट्टयाए किं संखेज्जाओ ? असंखेज्जाओ ? अणंताओ ? गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखज्जाओ, अणंताओ । एवं पाईणपडीणायताओ वि । एवं दाहिणुत्तरायताओ वि। महायताओ वि (भग २५.७७) अलोभ योगसंग्रह का एक प्रकार । निर्लोभता का आचरण । 'अलोभे य' त्ति अलोभता विधेया । (सम ३२.१ वृ प ५५) अल्प अवग्रह मति व्यावहारिक अर्थावग्रह का एक प्रकार। एक का अवग्रहण करना, जैसे- तत, वितत, घन, शुषिर आदि शब्दों में से किसी एक का ग्रहण करना । .....ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दं गृह्णाति । ( तवा १.१६.१६) (द्र एक अवग्रहमति) अल्पलेपिका 'पिण्डैषणा का एक प्रकार । रूखा आहार लेना, जैसे- वल्ल, चना आदि । Jain Education International जैन पारिभाषिक शब्दकोश सा अप्पलेविया जा निल्लेवा वल्लचणगाई । ( प्रसा ७४१ ) अल्पेच्छता मुनि की वह वृत्ति, जिसके आधार पर वह प्राप्त पदार्थों में मूर्च्छा नहीं करता तथा आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं करता । अप्पिच्छया णाम णो मुच्छं करेइ, ण वा अतिरित्ताण गिण्हइ । (द ९.३.५ जिचू पृ ३२० ) अवकाशान्तर अवकाश रूप अन्तराल । तनुवात, घनवात आदि अथवा कृष्णराजियों अथवा रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के मध्यवर्ती आकाश । सत्त ओवासंतरा पण्णत्ता । एतेसुं णं सत्तसु ओवासंतरेसु सत्त तणुवाया पट्टिया । (स्था ७.१८, १९) 'अट्ठसु उवासंतरेसु' त्ति द्वयोरन्तरमवकाशान्तरम् । (भग ६.१०६ वृ) 'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद् वा । (भग १.२५६ वृ) अवक्तव्यकसञ्चित संख्यात और असंख्यात दोनों प्रकार से व्यक्त नहीं होने वाली राशि अर्थात् एक ( एक को संख्या नहीं माना जाता ) । यः परिमाणविशेषो न कति नाप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवक्तव्यकः स चैक इति तत्सञ्चिता अवक्तव्यकसञ्चिताः । (स्था ३.७ वृ प ९९ ) (द्र अकतिसञ्चित) अवगाढ वस्तु का व्याप्ति - क्षेत्र, जितने क्षेत्र में वस्तु व्याप्त होती है, उतना क्षेत्र अवगाढ कहलाता है । (प्रज्ञा ३.१८० ) अवगाढरुचि अनेक नयवादों - विकल्पों से युक्त गंभीर श्रुत के अर्थश्रवण से उत्पन्न तीव्र संवेग । गाहरु णाम अगनयवायभंगुरं सुयं अत्थओ सोऊण महता संवेगमावज्जइ एस ओगाहरुई । (दजिचू पृ ३४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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