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________________ ३१८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश सुषमा जीव। (प्रज्ञा १.२१) काल का सुखमय विभाग, अवसर्पिणी का दूसरा तथा (द्र सूक्ष्मनाम) उत्सर्पिणी का पांचवां अर। इसका कालमान तीन कोटाकोटि सागरोपम होता है। (स्था १.१३९) सूक्ष्मआनप्राण लब्धि तिण्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा। वह लब्धि, जिससे सम्पन्न मुनि अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन कर सकता है। (भग ६.१३४) चतुर्दशापि सूक्ष्माणप्राणलब्धिसम्पन्नोऽन्तर्मुहूर्तेन (द्र सुषमसुषमा) परावर्त्तयति। (ओनिवृ प १७८) सुष्ठुदत्त सूक्ष्म आलोचना ज्ञान का एक अतिचार । योग्यता से अधिक ज्ञान देना। आलोचना का एक दोष। केवल छोटे दोषों की आलोचना सुष्ठु दत्तं गुरुणा। (आव ४.८ हावृ २ पृ१६१) करना तथा बड़े दोषों को छिपा लेना। सुसंवृत सूक्ष्ममेव वाऽतिचारमालोचयति। वह मुनि, जिसके प्राणातिपात आदि समस्त आश्रवद्वारों का (स्था १०.७० वृप ४६०) निरोध हो गया हो। सूक्ष्म उद्धार पल्योपम सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं"।स्थगितसमस्ताश्रवद्वारः सुसंवृतः। (अनु ४२२, ४२४) (उ १२.४२ शावृ प ३७१) (द्र उद्धार पल्योपम) सुसमाहित सूक्ष्म उद्धार सागरोपम वह मुनि, जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्यक् रूप से (अनु ४२३, ४२४) भावित होता है। (द्र उद्धार सागरोपम) नाण-दसण-चरित्तेसु सुट्ट आहिता सुसमाहिता। (द ३.१२ अचू पृ६३) सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान का एक प्रकार। तेरहवें जीवस्थान की अन्तिम सुस्वरनाम अवस्था, जिसमें उच्छ्वास-नि:श्वास की सूक्ष्म क्रिया शेष नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव का स्वर रहती है, उस अवस्था का निवर्तन-ह्रास नहीं होता, इसलिए प्रीतिकारक होता है। वह अनिवृत्ति है। यदुदयवशात् जीवस्य स्वरः श्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायते सक्ष्मा क्रिया यत्र निरुद्धवाग्मनोयोगत्वे सत्यर्द्धनिरुद्धतत्सुस्वरनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) काययोगत्वात्तत्सूक्ष्मक्रियं न निवर्त्तत इत्यनिवर्त्ति वर्द्धमानसूक्ष्म अध्वा पल्योपम परिणामत्वात्, एतच्च निर्वाणगमनकाले केवलिन एव स्यात्। (अनु ४२७, ४२९) (भग २५.६०९ वृ) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिनि केवलं सूक्ष्मा उच्छवासनिःश्वास(द्र अध्वा पल्योपम) क्रियैव अवशिष्यते। (जैसिदी ६.४४ वृ) सूक्ष्म अध्वा सागरोपम सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति (अनु ४३०, ४३१) (जैसिदी ६.४४) (द्र अध्वा सागरोपम) (द्र सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति) सूक्ष्मअप्कायिक सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम सक्ष्मनाम कर्म के उदय से निष्पन्न सक्ष्म शरीर वाले अप्कायिक (अनु ४३६-४३९) For Private & Pe (द्र क्षेत्र एल्योपम) www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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