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________________ ३१४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश उनकी हिंसा करने, कराने और अनुमोदन करने से सर्वथा । सामानिक विरत होता है। वह देव, जो प्रभुता के अतिरिक्त इन्द्र के समकक्ष होता है। साधवः प्रव्रजिताः षड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारितादि समानया-इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः । परिवर्जनेन। (दहावृ प ६३) (भग ३.४ वृ) साध्य इन्द्रसमाना: सामानिका: अमात्यपितृगुरूपाध्याय-महत्तरवत् जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध नहीं है, बाधित नहीं है केवलमिन्द्रत्वहीनाः। (तभा ४.४) और जिसे सिद्ध करना अभीप्सित है। सामान्य अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम्। (प्रनत ३.१४) वह धर्म, जो अभेद की प्रतीति का निमित्त बनता है। सिसाधयिषितं साध्यम्। (भिक्षु ३.९) अभेदप्रतीतेर्निमित्तं सामान्यम्। (भिक्षु ६.६) सान्तरबन्धिनी (द्र विशेष) वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध जघन्यतः एक समय मात्र सामान्य गुण और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त तक होता है, अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् वह गुण, जो सब द्रव्यों में समान रूप से व्याप्त रहता है, नियमतः बंध-विच्छेद हो जाता है. जैसे-असाता वेदनीय। जैसे-अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्त्व और यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्रं बन्धः, उत्कर्षतः समया अगुरुलघुत्व। दारभ्य यावदन्तर्मुहूर्तं न परत: ताः सान्तरबन्धाः। द्रव्येषु समानतया परिणत: सामान्यः। व्यक्तिभेदेन परिणतो (कप्र पृ ४३) विशेषः। (जैसिदी १.३७ वृ) सान्निपातिक भाव अस्तित्व-वस्तुत्व-द्रव्यत्व-प्रमेयत्व-प्रदेशवत्त्व-अगुरुभाव का एक प्रकार, मिश्रित भाव, जो औदयिक आदि भावों लघुत्वादिः सामान्यः। (जैसिदी १.३८) के संयोग से निष्पन्न होता है। सामायिक सन्निवाइए-एएसिं चेव उदइय-उवसमिय-खइय-खओव १. श्रावक का नौवां व्रत। एक मुहूर्त तक सावद्य प्रवृत्ति का समिय-पारिणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं तिगसंजोएणं त्याग, समता का अभ्यास। चउक्कसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे निप्पज्जइ सव्वं से सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं सन्निवाइए नामे। (अनु २८९) (आवपरि पृ २२) सामयिकी संज्ञा २. चारित्र का एक प्रकार । यावज्जीवन तीन करण तीन योग (द्र संज्ञासूत्र) से सर्व सावद्ययोग का प्रत्याख्यान। करेमि भंते! सामाइयं-सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि, सामयिक व्यवसाय जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए काएणं, न सांख्य आदि श्रमणों के सिद्धान्त के आधार पर होने वाला करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। निश्चय और अनुष्ठान। __ (आव १.२) (द्र व्यवसाय) ३. षडावश्यक में प्रथम आवश्यक, सामायिक अध्ययन, सामाचारी जिसका प्रतिपाद्य है-सावद्य प्रवृत्ति से विरति। मुनि-संघ का व्यवहारात्मक आचार, जैसे-इच्छाकार, सावज्जजोगविरई"""पढमे सामादियज्झयणे पाणादिवायामिथ्याकार आदि। दिसव्वसावज्जजोगविरती कायव्वा। (अनु ७४ चू पृ१८) सामाचारी तां-यतिजनेतिकर्तव्यतारूपाम्। ४. अङ्गबाह्यश्रुत का एक प्रकार। वह अध्ययन, जिसमें समभाव का निरूपण है। (उ २६.४ शावृ प ५३३) (द्र ओघ सामाचारी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org च।
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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