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________________ ३१० जैन पारिभाषिक शब्दकोश हो। पढमे भंते! महब्बए पाणाइवायाओ वेरमणं। सव्वं भंते! सर्वरात्रिभोजनविरमण पाणाइवायं पच्चक्खामि "नेव सयं पाणे अइवाएज्जा नेवन्नेहिं पाणे अइवायावेज्जा पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणु मुनि का छठा व्रत। सर्वतः-तीन करण और तीन योग से जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए रात्रिभोजन का यावज्जीवन परित्याग। काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। अहावरे छटे भंते! वए राईभोयणाओ वेरमणं। सव्वं भंते! (द ४ सू ११) राईभोयणं पच्चक्खामि "जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं सर्वभाषानुगामी न समणुजाणामि। (द ४ सू १६) वह मुनि, जो अनेक भाषाओं का ज्ञाता हो अथवा लब्धिविशेष के कारण किसी की भी भाषा को समझने की शक्ति वाला सर्वविराधक १. वह व्यक्ति, जो न शीलसम्पन्न है, न श्रुतसम्पन्न है। 'सव्वभासाणुगामिणो'त्ति सर्वभाषा:--आर्यानार्यामरवाचः ""से णं पुरिसे असीलवं असुयवं-अणुवरए, अविण्णायअनुगच्छन्ति-अनुकुर्वन्ति तद्भाषाभाषित्वात् स्वभाषयैव वा धम्मे। एस णं गोयमा! मए परिसे सव्वविराहए पण्णत्ते। लब्धिविशेषात्तथाविधप्रत्ययजननात्। (औप २६ वृ पृ६४) (भग ८.४५०) २. वह मुनि, जो चतुर्विध धर्मसंघ, अन्यतीर्थिक और गृहस्थ सर्वमृषावादविरमण को सम्यक् सहन नहीं करता। द्वितीय महाव्रत। सर्वतः-तीन करण और तीन योग से जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मृषावाद (असत्य भाषण) का यावज्जीवन परित्याग। मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं अहावरे दोच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं। सव्वं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि"नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्म सहइ जाव मुसं वायावेज्जा मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा नो अहियासेइ-एस णं मए परिसे सव्वविराहए पण्णत्ते॥ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न (ज्ञा ११.७) करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। __ (द ४ सू १२) सर्वाक्षरसन्निपात वह विद्या, जिसके द्वारा सब अक्षरों के सब संयोगों का ज्ञान सर्वमैथुनविरमण हो जाता है। (नन्दीचू पृ ७६) (नन्दा चतुर्थ महाव्रत। सर्वतः-तीन करण और तीन योग से मैथुन का यावज्जीवन परित्याग।। सर्वाक्षरसन्निपाती अहावरे चउत्थे भंते! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं। सव्वं भंते! सब अक्षरों के संयोग का ज्ञाता। मेहुणं पच्चक्खामि "नेव सयं मेहुणं सेवेज्जा नेवन्नेहिं मेहुणं। सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य सेवावेज्जा मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणेज्जा जावज्जी- ज्ञेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती। (भग १.९ वृ) वाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए काएणं न करेमि न सर्वार्थ अप्रतिलोमता कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि। (द ४ सू १४) लोकोपचार विनय का एक प्रकार । सब विषयों में अनुकूल आचरण करना। सर्वरत्न सर्वार्थेष्वप्रतिलोमता-आनुकूल्यमिति। महानिधि का एक प्रकार। चौदह रत्नों की उत्पत्ति का प्रतिपादक (स्था ७.१३७ वृ प ३८८) शास्त्र। सर्वार्थसिद्ध रयणाई सव्वरयणे, चोद्दसपवराईचक्कवद्रिस्स। अनुत्तरविमान का पांचवां स्वर्ग। इस विमान में शब्द आदि उप्पजंति एगिंदियाई, पंचिंदियाइं च॥ इन्द्रिय-विषय अतिशय रमणीय होते हैं और अभ्युदय के (स्था ९.२२.५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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