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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ३०१ सत्यवचन संवर (प्रश्न ६.१.२) (द्र सर्वमृषावादविरमण) सन्दिग्ध अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। विषय का संशययुक्त ग्रहण करना, जैसे-स्पर्श के आधार पर संशय होना कि यह स्त्री है या नहीं? यदा तमेव स्पर्श संशयापन्नः परिच्छिनत्ति स्पर्शोऽयं भवति एवं तु न निश्चिनोति-योषित एवायं, विलोमधर्मादपीदशो भवति स्पर्श इति संशयप्रादुर्भावात्। (तभा १.१६ वृ) सन्धि १. अतीन्द्रिय चेतना के जागरण में हेतुभूत कर्मविवर। २. शरीरवर्ती करण, चैतन्यकेन्द्र अथवा चक्र, जो अप्रमत्तअध्यवसाय की निरन्तरता को बनाए रखने वाले हैं। ३. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की समन्वित आराधना। .."अतीन्द्रियचैतन्योदयहेतुभूतं कर्मविवरं सन्धिः । अप्रमादाध्यवसायसन्धानभूतं शरीरवर्तिकरणं चैतन्यकेन्द्रं चक्रमिति यावत्। "सन्धिर्विवरं ज्ञानदर्शनचारित्राराधना वा। (आभा २.१२७) सत्यामृषा भाषा मिश्र भाषा, जिसमें सत्य और असत्य का मिश्रण होता है। यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणेन सत्या, विपरीतस्वरूपा मृषा, उभयस्वभावा सत्यामृषा। (प्रज्ञा ११.२ ७ प २४८) सदृशकल्पी वह मुनि, जो स्थितकल्प, स्थापनाकल्प और उत्तरगुणकल्प में समानधर्मा है। ठितकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णतरे। उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिसकप्यो स सरिसो उ॥ (निभा ५९३२) (द्र सम्भोज, साम्भोजिक) सद्भावपदार्थ अनुपचरित या पारमार्थिक वस्तु। सद्भावेन-परमार्थेनानुपचारेणेत्यर्थः पदार्था-वस्तूनि सद्भावपदार्थाः। (स्था ९.६ वृ प ४२३) सद्भाव प्रत्याख्यान परमार्थ रूप से होने वाला प्रत्याख्यान, जो चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली की अवस्था में होता है। सद्भावेन-सर्वथापुनर्करणासंभवात्परमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानम्। (उ २९.४२ शावृ प ५८९) सद्भूत व्यवहारनय धर्म और धर्मी में भेद का प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण। त्रयश्चोपनयास्तत्र, प्रथमो धर्मधर्मिणोः। भेदाच्छुद्धस्तथाशुद्धः सद्भूतव्यवहारवान्। (द्रत ७.१) सधूम (भग ७.२२) (द्र धूम) सन्निकर्ष इन्द्रिय और अर्थ का संबंध, इन्द्रिय के साथ विषय का सामीप्य, उचित देश में अवस्थान। सन्निकर्ष इन्द्रियार्थसंबन्धः। (प्रनत १.४७) सन्निधि मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार। औषध, भैषज्य तथा खाने-पीने की वस्तुओं का संग्रह करना अथवा रातबासी रखना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। ""ओसह-भेसज्ज, भत्त-पाणं च तं पि सन्निहिकयं। (प्रश्न २.५) 'सन्निधी' नाम एतेसिं दव्वाणं जा परिवासणा सा सन्निधी भण्णति। (द ३.३ जिचू पृ २२०) सपर्यवसित श्रुत श्रुतज्ञान का एक प्रकार। द्वादशाङ्ग श्रुत, जो व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से सपर्यवसित है। वुच्छित्तिनयट्ठयाए साइयं सपज्जवसियं। (नन्दी ६८) सप्तभंगी 'स्यात्' शब्द से युक्त सात प्रकार का वचन प्रयोग, जो एक सनत्कुमार तीसरा स्वर्ग। कल्पोपन्न वैमानिक देवों की तीसरी आवासभूमि। (उ ३६.२१०) (देखें चित्र पृ ३४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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