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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २९७ संसार जीव का भव-भवान्तर में गमन--परिभ्रमण, जो स्व-कृत कर्म के कारण होता है। आत्मोपचितकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्ति: संसारः । (तवा २.१०.१) संशयकरणी असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। अनेकार्थवाचक शब्द प्रयोग वाली भाषा, जो संशय पैदा करती है, जैसेसैंधव लाओ। संशयकरणी या वाक् अनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति, यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दोलवणवस्त्रपुरुषवाजिषु। (प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९) संशुद्धज्ञानदर्शनधर स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था । अर्हत. जिसने केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। यह स्नातक निर्ग्रन्थ के निरावरण ज्ञान और दर्शन की सूचक है। ज्ञानान्तरेणासम्पृक्तत्वात् संशुद्धज्ञानदर्शनधर: पूजार्हत्वादर्हन्। (स्था ५.१८९ वृ प ३२०) संसार अनुप्रेक्षा तीसरी अनुप्रेक्षा । संसार के कष्टमय स्वरूप का चिन्तन करना तथा जन्म-मरण के चक्र से मक्ति पाने के लिए द:खमय संसार का चिन्तन करना। कष्टस्वभावः संसार इति चिन्तयेत्। एवं ह्यस्य चिन्तयतः संसारभयोद्विग्नस्य निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च संसारप्रहाणाय घटत इति संसारानुप्रेक्षा। (तभा ९.७) संसक्त शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार। १. असंक्लिष्ट-वह श्रमण, जिसमें आचार के गुणों और दोषों का मिश्रण होता है। वह जिसके साथ मिलता है, उसके सदृश हो जाता है-पार्श्वस्थ के साथ मिलकर पार्श्वस्थ और यथाच्छंद के साथ मिलकर यथाच्छंद हो जाता है। २. संक्लिष्ट-वह श्रमण, जो हिंसा आदि पांच आश्रवों में प्रवृत्त है, स्त्री, ऋद्धि, रस आदि से प्रतिबद्ध है। गुणैर्दोषैश्च संसज्यते मिश्रीभवतीति संसक्तः। (प्रसा १०३ वृ प २७) गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडो व्व एलगो चेव। संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य॥ पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते। पियधम्मो पियधम्मे, असंकिलिट्ठो उ संसत्तो॥ पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो। इस्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो॥ (व्यभा८८८-८९०) संसारचक्र जन्म-मरण का चक्र, जिसके छह अर-विभाग हैं-जाति, जरा, सुख, दु:ख, जीवन और मरण। संसारचक्कं छव्विहं, तं जहा--जाती जरा सुहं दुक्खं जीवितं मरणं। (उ १४.४ चू पृ २२२) संसारपरीत वह जीव, जिसका संसार (जन्म-मरण) परिमित हो गया हो, कुछ कम अपार्धपुद्गलपरिवर्त्त जितना रह गया हो। कृतपरिमितसंसार: स संसारपरीतः। (प्रज्ञा १८.१०६ वृ प ३९४) संसारपरित्ते"कालओ"जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणंअणंतं कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियट्टे देसूणं॥ (जीवा ९.७८) संसारस्थ जीव बद्धजीव, जन्म-मरण की परम्परा में परिभ्रमण करने वाला जीव, जैसे-नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। संसारो-गतिचतुष्टयात्मकस्तत्र तिष्ठन्तीति संसारस्था:नरकादिगतिवर्तिनः। (उ ३६.४८ शावृ प ६७७) संसक्तशयनासन वर्जन ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का वर्जन करना। ब्रह्मचर्यस्य स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तशयनासनवर्जनम्। (तभा ७.३) संसृष्ट पिण्डैषणा का एक प्रकार। देय वस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से आहार लेना। संसट्ठा हत्थमत्तएहिं। (प्रसा ७४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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