SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश जे केइ नालियाबद्धा पुण्फा संखेज्जजीविया भणिता।" (प्रज्ञा १.४८.४१) संख्येयप्रदेशिक वह पुद्गलस्कंध, जो संख्येय परमाणुओं से निष्पन्न होता है। (प्रज्ञा ३.१७९) सङ्ग १. आसक्ति। संग:-आसक्तिः । (आभा ६.१०८) २. विघ्न, विक्षेप। संगो त्ति वा विग्यो त्ति वा वक्खोडि त्ति वा। (आ ६.१०८ चू पृ२४१) सङ्गपरिज्ञा योगसंग्रह का एक प्रकार। आसक्ति का त्याग। 'संगाणं च परिणाय' त्ति संगानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदभिन्ना परिज्ञा कार्या। (सम ३२.१.५ व प ५५) जिसका विषय अंतिम सामान्य अथवा अवान्तर सामान्य होता है। सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः। (प्रनत ७.१३) पज्जवणयवोक्कंतं वत्थं दव्वट्टियस्स वयणिज्जं। जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्पनिव्वयणो। दव्वढिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ नियम सुद्धजाईओ। ण य पज्जवदिओ णाम कोइ भयणाय उ विसेसो॥ (सप्र१.८,९) संग्रहपरिज्ञासम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। संघव्यवस्था का कौशल। संगहपरिण्णासंपदा चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा-बहुजणपाओग्गताए वासावासासु खेत्तं पडिले हित्ता भवति, बहुजणपओग्गताए पाडिहारियपीढफलगसेज्जासंथारयं ओगेण्हित्ता भवति। कालेणं कालं समाणइत्ता भवति, अहागुरु संपूएत्ता भवति । से तं संगहपरिण्णासंपदा। (दशा ४.१३) सङ्क संग्रहकुशल वह मुनि, जो परस्पर सहयोग करने में प्रवण है, गुरु के १. धर्माराधना करने वालों का वह संगठन, जिसमें ज्ञान, क्लांत होने पर स्वयं वाचना देता है, सारणा वारणा में दर्शन और चारित्र का समन्वय होता है। निपुण है, जो यथार्ह गुरुजनों की पूजा करता है, दुःखार्त के संघो गुणसंघाओ संघो य विमोचओ य कम्माणं। प्रति अनुकम्पाशील है, भक्तपान, उपधि आदि लाकर देता दंसणणाणचरित्ते संघायंतो हवे संघो॥ (भआ ७१३) है, वस्त्र-सीवन, पात्रलेपन आदि अपेक्षाओं को स्वेच्छा से २. अनेक गणों का समुदाय। पूर्ण करता है। सङ्घः 'गणसमुदायः।' (बृभा २७८० वृ) साहिल्ल वयण-वायण, अणुभासण-देस-कालसंसरणं। सङ्घ धर्म अणुकंपणमणुसासण, पूयणमब्भंतरं करणं॥ १. संघ (राज्य) की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता। संभुंजणसंभोगे, भत्तोवधि अन्नमन्नसंवासो। संगहकुसलगुणनिधी, अणुकरणकरावण निसग्गो॥ २. मुनियों के संघ की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता। संघधर्मो गोष्ठीसमाचारः। आर्हतानां वा गणसमुदायरूप(व्यभा १५०७,१५०८) श्चतुर्वर्णो वा संघस्तद्धर्म:-तत्समाचारः। संग्रहदान (स्था १०.१३५ वृ प ४८९) वह दान, जो विपत्ति आदि में सहायता के लिए दिया जाता सङ्घाटक संग्रहणं संग्रहः-व्यसनादौ सहायकरणं तदर्थं दानं दो साधुओं का समूह। संग्रहदानम्। 'सङ्घाडगे' त्ति सङ्घाटकेन-साधुयुग्मेन। (बृभा १६९६ वृ) (स्था १०.९७ वृ प ४७०) संज्ञा संग्रहनय १. प्रत्यभिज्ञा। सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण। वह नय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy