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________________ २९० जैन पारिभाषिक शब्दकोश श्रोत्रेन्द्रिय असंवर (आश्रव) कर्म-आकर्षण की हेतभत श्रोत्र इन्द्रिय की प्रवृत्ति । (स्था १०.११) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह प्रिय, अप्रिय शब्दों में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह, इसके । द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म की । निर्जरा होती है। सोइंदियनिग्गहेणं मणुनामणुन्नेसु सद्देसुरागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं च निज्जरेइ॥ (उ २९.६३) श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष का एक प्रकार। श्रोत्रेन्द्रिय की सहायता से होने वाला शब्द का ज्ञान। (नन्दी ५) (द्र इन्द्रियप्रत्यक्ष) भरतो नामाद्यश्चक्रधर: षट्खण्डाधिपतिः।"भरतो "स पुनर्गङ्गासिन्धुभ्यां विजयार्धेन च षड्भागसंविभक्तः। (तवा ३.१० पृ १७१) षट्पूर्व प्रतिलेखनविधि का एक प्रकार । वस्त्र के दोनों ओर तीनतीन विभाग कर उसका प्रस्फोटन करना, उसे झटकाना। छप्पुरिम त्ति षट्पूर्वाः पूर्वं क्रियमाणतया तिर्यक् कृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मका: क्रियाविशेषाः येषु ते षट्पूर्वाः । (उ २६.२५ शावृ प ५४१) (द्र गणनोपग) षट्स्थानपतित तुलनात्मक न्यूनता और अधिकता को बताने वाले छः गणितीय मान, जैसे-अनंतभागहीन, असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येयगुणहीन, असंख्येयगुणहीन, अनंतगुणहीन। अनंतभागअधिक, असंख्येयभागअधिक, संख्येयभागअधिक, संख्येयगुणअधिक, असंख्येयगुणअधिक, अनंतगुणअधिक। वड़ी वा हाणी वाणंतासंखिज्जसंखभागाणं। संखिज्जासंखिज्जाणंतगुणा चेति छब्भेया॥ (विभा ७२९) भावापेक्षया हीनत्वाभ्यधिकत्वचिन्तायां हानौ वृद्धौ च प्रत्येक षट्स्थानपतितत्वमवाप्यते। (प्रज्ञा ५.५ व प १८२) श्रोत्रेन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो सुनने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है। (प्रसा १०६६) श्रोत्रेन्द्रियरागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ शब्द में राग का वर्जन और अमनोज्ञ शब्द में द्वेष का वर्जन करना। (सम २५.१.२१) (द्र चक्षुरिन्द्रिय रागोपरति) श्रोत्रेन्द्रिय संवर श्रोत्रेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध । (स्था ५.१३७) षडावश्यक छह विभाग वाला आवश्यक सूत्रा, जैसे-सामायिक, चतुर्विंश-तिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। आवस्सयं छव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं। (नन्दी ७५) षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती, जो भरतक्षेत्र के छह भूखण्डों का स्वामी होता है। भरतक्षेत्र विजयार्ध (वैताढ्यगिरि), गंगानदी और सिन्धुनदी से छह भागों में विभक्त है। चक्रवर्त्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः'षट्खण्डभरतादेः क्षेत्रस्य प्रभुत्वमनुभवति। (बृभा ६६९ वृ) षड्जीवनिकाय जीवों के छह वर्ग, जैसे-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय। ""छज्जीवनिकायाई"तं जहा-पुढविकाए, आउकाए, तेउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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