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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २८५ युक्त होती है, जैसे-सात वेदनीय, तीर्थङ्करनाम, वज्रऋषभनाराच संहनन आदि। जीवप्रमोदहेतुरसोपेताः प्रकृतयः शुभाः। (कप्र पृ३४) शुभ योग मन, वचन और शरीर की शुभ प्रवृत्ति, जिससे कर्म की निर्जरा होती है और प्रासंगिक रूप से पुण्य का बंध होता है। शुभयोगः-सत्प्रवृत्तिः, स च शुभकर्मपुदगलान् आकर्षति। """अशुभकर्माणि त्रोटयतीति निर्जराकारणं तु समस्त्येव। (जैसिदी ४.२६,२७ वृ) शुश्रूषणा विनय दर्शनविनय का एक प्रकार। सत्कार, सम्मान, अभ्युत्थान, हाथ जोडना आदि के रूप में गरु के प्रति किया जाने वाला विनम्र व्यवहार। सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मान आसननिमन्त्रणा तथा च। आसनसंक्रामणं कृतिकर्म अञ्जलिग्रहश्च ॥ आगच्छतोऽभिव्रजनं स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता। गच्छतोऽनुव्रजनं एष (स्थावृ प३८७) सेसवं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं॥ (अनु ५२१) शैक्ष १. नवदीक्षित मुनि, जिसे छेदोपस्थापनीय चारित्र में उपस्थापित न किया गया हो। २. श्रुतज्ञान की शिक्षा-ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा का अभ्यास करेन वाला। 'शैक्षः' अभिनवदीक्षितः। (बृभा ६४११ वृ) सेहे छठेवुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया। (बृभा ६४१३) .."कतिचिदहानि प्रतिपन्नस्य सामायिकस्य गतानि यस्य प्रव्रजितः। अनारोपितविविक्तव्रतो वा ग्रहणासेवनशिक्षामुभयींसोऽचिर प्रव्रजित: शिक्षयितव्यः शिक्षः। शिक्षामर्हतीति वा शिक्षाशीलो वा शैक्षः। (तभा ९.२४ ७ प २५७) शैक्षभूमि सामायिक चारित्र का कालमान (नवदीक्षित मुनि के लिए), जो उत्कृष्ट छह मास का, मध्यम चार मास का, जघन्य सात अहोरात्र का है। तओ सेहभूमीओपण्णत्ताओ, तं जहा-उक्कोसा"छम्मासा, मज्झिमा चउमासा, जहण्णा सत्तराइंदिया। सेध्यते--निष्याद्यते यः स सेधः शिक्षा वाऽधीत इति शैक्षः तस्य भूमयो-महाव्रतारोपणकाललक्षणाः अवस्थापदव्य इति सेधभूमयः शैक्षभूमयो वा। (स्था ३.१८६ वृप १२४) शैक्षस्थापना अकल्प १. शैक्ष द्वारा आनीत या याचित आहार, वसति और वस्त्रपात्र ग्रहण करना। २. वर्षाकाल में किसी को प्रव्रजित करना अथवा ऋतुबद्धकाल में अयोग्य को प्रव्रजित करना। सेहट्ठवणाकप्पो नाम जेण पिंडणिज्जुत्तीण सुता तेसुआणियं न कप्पइ भोत्तुं, जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पड़, जेण वत्थेसणा ण सुया तेण वत्थं । उडुबद्धे अणला ण पव्वाविजंति, वासास सव्वेऽवि। (दजिचू पृ २२६) (द्र शैक्षस्थापना कल्प) शूरहक वह मुनि, जो कलह आदि करने वालों को समझाने में समर्थ हो। 'शूरहकः' कलहादिकुर्वतां शिक्षा कर्तुं समर्थः । (बृभा ४४१० वृ) शृङ्गनादित संघकार्य। वह कार्य, जो सब कार्यों में शृङ्गभूत-मुख्य होता है। कज्जेसु सिंगभूयं, तु सिंगनादिं भवे कजं॥ (बृभा ३८८) ""शृङ्गनादितकार्यम्""तादृशे कार्य उत्पन्ने शृङ्गनादः-शृङ्गापूरणपूर्वकं संघमिलनलक्षण: स सञ्जातो यत्र तच्च तत् कार्य"संघकार्यमुच्यते। (नन्दीहावृ पृ १६२,१६३) शेषवत् अनुमान कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय से होने वाला अनुमान, जैसे उफनती हुई नदी को देखकर वर्षा के होने का अनुमान करना। शैक्षस्थापना कल्प दीक्षा के लिए अयोग्य व्यक्ति को दीक्षित न करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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