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________________ २८२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १. वह द्रव्य, जिसके प्रयोग से प्राणी प्राण से च्युत हो जाता २. शिक्षाव्रत सात हैं-१. दिगविरति २. उपभोगपरिभोगविरति ३. अनर्थदण्डविरति ४. सामायिक ५. देशावकाशिक ६. पौषधोपवास ७. यथासंविभाग। कहीं कहीं ऐसी व्यवस्था भी मिलती है कि इन सात व्रतों में शेष चार व्रत ही अभ्यासात्मक होने के कारण शिक्षाव्रत हैं। पहले तीन व्रत अणुव्रतों के गुणवर्धक होने के कारण गुणव्रत मारकं वस्तु द्रव्यशस्त्रम्। (आभा पृ ३४) २. असंयम। असंयमश्च भावशस्त्रम्। (आभा पृ ३४) ३. दुष्प्रवृत्ति। """दुप्पउत्तो मणो वाया, काओ भावो य अविरती। (स्था १०.९३) हैं। शायनी शतायु पुरुष की दसवीं (अंतिम) दशा । दसवां दशक, जिसमें व्यक्ति निद्राघूर्णित जैसा बन जाता है, हीनस्वर, भिन्नस्वर, दीन, चित्तशन्य-सा और दःखित हो जाता है। हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ सुवइ, संपत्तो दसमिंदसं॥ (दहावृ प ९) दिगपभोगपरिभोग-अनर्थदण्डविरति-सामायिक-देशावकाशिक-पौषधोपवास-यथासंविभागा: शिक्षाव्रतम्। (जैसिदी ६.२४) एषु शेषचतुष्कमेव भूयोऽभ्यासात्मकत्वात् शिक्षाव्रतम्। आद्यत्रयञ्च अणुव्रतानां गुणवर्धकत्वाद् गुणव्रतम्-क्वचिदित्यपि व्यवस्था। (जैसिदी ६.२४ ) (द्र सप्तशिक्षावतिक) शाश्वताशाश्वत द्रव्यानुयोग का एक प्रकार, जिसके आधार पर द्रव्य के शाश्वत, अशाश्वत का विचार किया जाता है। 'सासयासासए'त्ति शाश्वताशाश्वतं, तत्र जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं तदेवापरापरपर्यायप्राप्तितोऽशाश्वतमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति। (स्था १०.४६ वृ प ४५७) शिक्षा योगसंग्रह का एक प्रकार। आगमों का अध्ययन और अभ्यास । 'सिक्ख'त्ति योगसङ्ग्रहाय शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च सूत्रार्थग्रहणरूपा प्रत्युपेक्षाद्यासेवनात्मिका च इति। (सम ३२.१.१ वृ प ५५) सा पुण दुविहा सिक्खा गहणे आसेवणे य नायव्वा। गहणे सुत्ताहिज्मण आसेवण तिप्पकप्पाई। (विभा ७ वृ) शिक्षाव्रत १. पांच अणुव्रतों के सहयोगी व्रत, जिनका पुनः-पुनः अभ्यास किया जाता है, जैसे-सामायिक आदि। चत्तारि सिक्खावयाणि पुणो पुणो अब्भसिजंति। (आव २ पृ २९८) शिक्षित १. पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अंग। प्रारंभ से लेकर अन्त तक पढ़ा हुआ ग्रन्थ । जं आदितो आरब्भ पढ़तेणं अंतं णीतं तं सिक्खितं। (अनु १३ चू पृ७) २. सीख लेना, उच्चारण की शुद्धि करना। शिखरी वह वर्षधर पर्वत, जो हैरण्यवत क्षेत्र के उत्तर में, ऐरावत क्षेत्र के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह हैरण्यवत और ऐरावत-- इन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं, एरावयस्स दाहिणेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण-समुदस्स पुरथिमेणं। एवं जह चेव चुल्लहिमवंतो तह चेव सिहरीवि। (जं ४.२७४) हैरण्यवतैरावतयोर्विभक्ता शिखरी। (तभा ३.११ वृ) शिथिलबन्धनबद्ध कर्म वह कर्मबंध, जो अपवर्तन आदि कर्मकरण के योग्य होता 'शिथिलबन्धनबद्धाः'-अपवर्त्तनादिकरणयोग्याः । (उ २९.२३ शावृप५८५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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