SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २६१ (निभागा २९) वाचिक ध्यान १. वाणी का वह प्रयोग, जिसमें उपयोगपूर्वक श्रुत का परावर्तन किया जाता है। श्रुतपरावर्त्तनादिकमुपयुक्तः करोति तद् वाचिकम्।। (बृभा १६४२ वृ) २. पाप-मुक्त भाषा वक्तव्य है और पाप-युक्त भाषा वर्जनीय है-इस प्रकार विमर्शपूर्वक बोलना। वाचिकंतुमयेदृशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेदृशी सावद्या' इति विमर्शपुरस्सरं यद् भाषते। (बृभा १६४२ वृ) वाद तत्त्व का संरक्षण करने के लिए सभापति और सभासदों के सामने साधन और दूषण का कथन। तत्त्वसंरक्षणार्थं प्राश्निकादिसमक्षं साधनदूषणवदनं वादः। (प्रमी २.१.३०) वाच्य एक समय में एक धर्म का प्रतिपादन किया जा सकता है, इस अपेक्षा से धर्मी (द्रव्य) वाच्य है। वाग्गोचरं वाच्यम्। (भिक्षु ६.९) ""एकैकधर्मापेक्षया वाच्यम्। (भिक्षु ६.११ वृ) वातकुमार वे भवनपति देव, जिनका शरीर स्थिर, 7 ट और गोल आकार वाला होता है, उदर गंभीर होता , जिनका चिह्न है अश्व। स्थिरपीनवृत्तगात्रा निम्नोदरा अश्वचिह्ना अवदाता वातकुमाराः। (तभा ४.११) वादी १. वादलब्धि से सम्पन्न। शास्त्रार्थ में निपुण। वादी वादलब्धिसम्पन्नः। (स्था ९.२८ ७ प ४२८) २. वह मुनि, जो परवादियों के साथ बात करने के लिए नियुक्त होता है। (व्यभा १९४३) वानमन्तर देव देवनिकाय का दूसरा प्रकार, जिसका अवधिज्ञान और ऐश्वर्य सब देवों से अल्प होता है तथा जिसका आवासक्षेत्र मध्यलोक और नरक का एक भाग है। (उ ३६.२०४) (द्र व्यन्तर देव, वनचारी देव ) वामन संस्थान संस्थान का चौथा प्रकार, जिसमें हाथ, पैर, शिर और गर्दन प्रमाणोपेत होते हैं, शेष अंग प्रमाणयुक्त नहीं होते। 'वामण'त्ति मडहकोष्ठं यत्र हि पाणिपादशिरोग्रीवं यथोक्तप्रमाणोपेतं यत्पुनः शेष कोष्ठं तन्मडभं-न्यूनाधिकप्रमाणं तद्वामनम्। (स्था ६.३१ वृ प३३९) वायु वात्सल्य सम्यक्त्व का सातवां आचार। १. साधर्मिक का आदर करना। वच्छल्लं आदरेत्यर्थः। (निभा २९ चू) २. जिनप्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना। जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम्। (तवा ६.२४.१) ३. भक्ति। वात्सल्यम् भक्तिः। (जैसिदी ५.११ वृ) ४. गुरु, रुग्ण, बाल, वृद्ध आदि मुनियों की अग्लान भाव से सेवा करना, उन्हें आहार आदि लाकर देना। वह वायु, जो वायुकायिक जीवों की उत्पत्ति के योग्य है। वायुकायिकजीवसम्पूर्छनोचितो वायुः वायुमात्रं वायुरुच्यते। (तश्रुव २.१३) वायुकाय १. जीवनिकाय का चौथा प्रकार। (आचूला १५.४२) (द्र वायुकायिक) २. वायुकायिक जीवों के द्वारा मुक्त शरीर, जो संचरणशील साहम्मि य वच्छल्लं, आहारातीहिं होइ सव्वत्थ। आएसगुरुगिलाणे, तवस्सिबालादि सविसेसं॥ वायुकायिकजीवपरिहृतः सदा विलोडितो वायुर्वायुकायः कथ्यते। (तश्रुव २.१३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy