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________________ २५० जैन पारिभाषिक शब्दकोश जितना समय लगे, उतना समय, उत्कर्षतः एक कोटि पूर्व।) लंदमिति कालस्तस्य व्याख्या-तरुणित्थीए उदउल्लो करो जावतिएण कालेण सुक्कति जहण्णो लंदकालो, उक्कोसेण पुव्वकोडी। (निचू ४ पृ५१) समयपरिभाषया लन्दशब्देन कालो भण्यत इत्यर्थः उदकाकरो यावता कालेन 'इह' सामान्येन लोके शुष्यति तावान् कालविशेषो भवति जघन्यः, अस्य चेह जघन्यत्वं प्रत्याख्याननियमविशेषादिष विशेषत उपयोगित्वात्। (प्रसावृ प १७३) (द्र यथालन्दिक) लब्धि १. कर्म के क्षयोपशम और क्षय से होने वाला ज्ञान आदि गुणों का लाभ। लब्धि:-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः। (भग ८.१३९ वृ) २. योगज विभूति। तपोविशेषाद् ऋद्धिप्राप्तिर्लब्धिरित्युच्यते। (तवा २.४७.२) (द्र ऋद्धि) लब्धिअपर्याप्त वह जीव, जो निश्चित रूप से अपर्याप्त अवस्था में मरता है। (पर नियमतः प्रथम तीन पर्याप्तियां पूर्ण कर ही लेता। सेना को भी हत-प्रहत कर सकता है। संघाइयाण कज्जे चुन्निज्जा चक्कवट्टिमवि जीए। तीए लद्धीए जुओ लद्धिपुलाओ मुणेयव्यो॥ (भग २५.२७८ ) (द्र पुलाकलब्धि) लब्धिवीर्य वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से उत्पन्न अंतर्निहित वीर्यात्मक क्षमता। 'लद्धिवीरिएणं सवीरिय' त्ति वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो या वीर्यस्य लब्धि: सैव तद्हेतुत्वाद् वीर्य-लब्धिवीर्य, तेन सवीर्याः। (भग १.३७६ वृ) लब्ध्यक्षर अक्षरश्रुत का एक प्रकार । श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला अक्षरात्मक ज्ञान। अक्खरलद्धी जस्सऽस्थि तस्स इंदियमणोभयविण्णाणतो इह जो अक्खरलाभो उप्पज्जति तं लद्धिअक्खरं। (नन्दी ५६ चू पृ ४५) लयनपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र--संयमी को गह देने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र अन्नपुण्य) येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते न पुनः स्वयोग्यपर्याप्ती: सर्वा अपि समर्थयन्ते, ते लब्ध्यपर्याप्तकाः। तेऽपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते, नार्वाक्। (नन्दीमवृ प १०५) लब्धि इन्द्रिय भावेन्द्रिय का एक प्रकार। इन्द्रियों के विषय-ग्रहण की शक्ति, जो उनके आवारक कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती । लव काल का सात स्तोकप्रमाण माप, जो दो नाली अथवा एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट) का ७७ वां भाग होता है अर्थात् मुहूर्त सत्तुस्सासो थोवं सत्तत्थोवा लवि त्ति णादव्यो। सत्तत्तरिदलिदलवा णाली बे णालिया महत्तं च॥ (त्रिप्र ४.२८७) तथैकैको मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिर्लवान् लवाग्रेण-लवपरिमाणेन प्रज्ञप्तः। (सम ७७.४ वृ प८०) लब्धिः-श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणकर्मक्षयोपशमः। (नन्दीमवृ प ७६) लब्धिपुलाक पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो संघीय प्रयोजन उपस्थित होने पर अपनी लब्धि के द्वारा चक्रवर्ती की विशाल लवणसमुद्र वह समुद्र, जो जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए है, जिसका विस्तार चार लाख योजन है। (देखें चित्र पृ ३४१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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