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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २४३ अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। (आवचू २ पृ १३४, १३५) । योग आत्मा आत्मा का मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्त्यात्मक पर्याय। योगा--मनःप्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा। (भग १२.२०० वृ) योग आस्रव मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से होने वाला कर्म का आकर्षण। (स्था ५.१०९) योगपिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार। पादलेप, सौभाग्यवर्धक द्रव्यसंघात का प्रयोग कर भिक्षा लेना। योगः पादलेपादिः सौभाग्यादिकरः। (प्रसा ५६७ उव) (द्र चूर्णपिण्ड) योगप्रमत्त १. जो मन, वचन और काय से दुष्प्रणिहित है। २. जो इन्द्रियविषयों में आसक्त है। ३. जो ईर्या आदि समितियों से समित नहीं है तथा शुद्ध आहार, उपधि और स्थान के ग्रहण में जागरूक नहीं है। जोगप्पमत्तो मणदुप्पणिहाणेणं वइदुप्पणिहाणेणं कायदुष्पणिहाणेणं, तथा इंदियेसु सद्दाणुवाती रूवाणुवाती" तथा इरियासमितादीसु पंचसु वि असमितो भवति, तहा आहारउवहिवसहिमादीणि उग्गमउप्पादणेसणाहिं अणुवउत्तो गेण्हति। (आवचू २ पृ १३४) योगमुद्रा १. दोनों हाथों को कमलकोश के आकार में स्थापित कर तथा अंगुलियों में परस्पर अन्तराल रखकर दोनों कोहनियों को नाभि के पास संस्थित करने का नाम योगमुद्रा। अण्णोण्णंतरिअंगुलिकोसाकारेहिं दोहिं हत्थेहिं। पिट्ठोवरिकोप्परसंठिएहि तह जोगुमुद्दत्ति॥ (पञ्चा ११३) अन्नुन्नंतरिअंगुरलिको सागरेहिं दोहिं हत्थेहिं। पिट्टोवरि कुप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्दत्ति॥ (चैत्यवन्दन भा १५) २. पद्मासन आदि में से किसी एक आसन में स्थित होकर नाभि के नीचे ऊपर की ओर हथेली करके दोनों हाथों को ऊपर नीचे रखना। जिना: पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम्। उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे॥ (अमिश्रा ८.५५) योगवान् १. वह मुनि, जो एकाग्रमन वाला होता है। योगः-समाधिः सोऽस्यास्तीति योगवान्। __(उ ११.१४ शावृ प ३४७) २. वह मुनि, जो समितियों और गुप्तियों के प्रति सतत उपयुक्त, निरन्तर जागृत होता है। योगवानिति समिति-गुप्तिषु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः। (सूत्र १.२.११ चू पृ ५४,५५) योगवाहिता श्रुतोपधानकारिता, योगवहन करने वाले मुनि की विशिष्ट चर्या, श्रुत के अध्ययन के साथ की जाने वाली तपस्या। योगवाहितया-श्रुतोपधानकारितया, योगे वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही, तद्भावस्तत्ता तया"। (स्था १०.१३३ वृ प ४८७) (द्र योगवाही) योगवाही वह मुनि, जो आगमों के अध्ययनकाल में विकृतियों यानी प्रणीत और गरिष्ठ भोजन का वर्जन करता है। आगाढमणागाढे, दुविधे जोगे य समासतो होति।" (निभा १५९४) निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ जोगवाहिणो। कप्पंति कारणे भोत्तुं, अणुण्णाया गुरूहि य॥ (व्यभा २१४२) योगसंग्रह प्रशस्त व्यापाररूप बत्तीस योगों का संग्रह, जिसमें समाधि के सूत्रों का संग्रह किया गया है। प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते। (सम ३२.१ वृप ५४) योगाना-प्रशस्तव्यापाराणां संग्रहाः योगसंग्रहाः। (प्रश्न १०.१ ७ प १४६) योग सत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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