SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २३७ (उ २८.१४ शावृप ५५५) अष्टविधकर्मोच्छेदः। (द्र निर्वाण) मा कार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत कोऽपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते॥ (योशा ४.११८) परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री। (तवा ७.११.१) २. दूसरों के हित का चिन्तन। मैत्री परेषां हितचिन्तनं यद् । (शाभा १३ श्लोक ३) मैथुन आश्रव वेदमोह के उदय से कर्म को आकर्षित करने वाली आत्मा की अवस्था। (स्था ५.१२८) मिथन सेवै तिण नै कह्यो जी, मिथुन चोथो आसव जाण। आय लागै तिकै अशुभ कर्म छै जी, सात आठ दुखखाण॥ (झीच २२.१०) मोक्षपथ जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उनको जानना ज्ञान है और राग आदि का परिहार करना चारित्र है-यही मोक्षपथ है। जीवादीसदहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं, चरणं एसो द मोक्खपहो। (ससा १५५) मोक्षमार्ग सम्यक् दर्शन (आठ आचार वाला), सम्यक् ज्ञान (आगमस्वाध्याय) और सम्यक् चारित्र का समुच्चय। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। (तसू १.१) मोह मैथुन पाप पापकर्म का चौथा प्रकार । वासनात्मक प्रवृत्ति से बंधने वाला अशुभ कर्म। (आवृ प ७२) मैथुन पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मैथुन में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, मेथुन सेवै को अयाण।। तिण कर्म ने कहियै सही जी, मिथुन चोथो पापठाण ।। (झीच २२.९) मैथुनविरमण चतुर्थ महाव्रत। मैथुन के परित्याग से होने वाली विरति। मिथुनं-स्त्रीपुंसद्वन्द्वं तस्य कर्म मैथुनं तस्माद विरमणम्। (स्था १.११२ वृ प २७७) (द्र सर्वमैथुनविरमण) मैथुनसंज्ञा वेदमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला वासनात्मक संवेदन। पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्त्र्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपनप्रभृतिलक्षणक्रिया मैथुनसञ्ज्ञा। (प्रज्ञा ८.१ १ प २२२) मोक्ष नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। समस्त कर्मों का क्षय कर अपने आत्मस्वभाव में रमण करना। क्षायिकभाव एवात्मनो मुक्तत्वलक्षणो मोक्षः।"मोक्षः १. चेतना की रागद्वेषात्मक परिणति। रागद्वेषपरिणतिर्मोहः। (जैसिदी ९.७) २. मोहवेदनीय के उदय से होने वाला अज्ञानात्मक परिणाम। मोहनं वा मोहः, मोहवेदनीयकापादितोऽज्ञानपरिणाम एव। (पंचसूवृ पृ १) मोहोणाम अन्नाणं। (आवचू १ पृ २१२) मोहचिकित्सा परिश्रम, आतप-सहन, सेवा आदि के द्वारा मोह का निग्रह करना। निर्विकृतिक, उपवास, स्थान (खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना), देशाटन, अध्ययन-अध्यापन आदि उपायों के द्वारा मोहोदय (कामवासना) का शमन करना। 'मोहचिकित्सा च' परिश्रमाऽऽतपवैयावृत्त्यादिभिर्मोहस्य निग्रहः कृतो भवति। (बृभा ५३०१७) निव्विति ओम तव वेय, वेयावच्चे तधेव ठाणे य। आहिंडणा य मंडलि.. (व्यभा १६०१) मोहनीय कर्म १. वह कर्म, जो दर्शन और चारित्र को विकृत कर चेतना को मूढ बनाता है। दर्शनचारित्रयोर्विकारापादनाद मोहयति आत्मानमिति मोहनीयम्। (जैसिदी ४.३ ७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy