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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १९९ हावाणि। प्रातिहार्य भूमि पर बैठकर अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य, चांद आदि इन्द्र-नियुक्त देवों द्वारा कृत तीर्थंकर के आठ अतिशय, जैसे- तथा मेरुशिखर आदि का स्पर्श कर सकता है। छत्र, चामर आदि। भूमीए चेतॄतो अंगुलिअग्गेण सूरससिपहुदिं। प्रतिहारा:-सुरपतिनियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि कृत्यानि मेरुसिहराणि अण्णं जं पावदि पत्तिरिद्धी सा॥ प्राति-हार्याणि। (प्रसा ४४० वृ प १०६) (त्रिप्र ४.१०२८) अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च। प्राप्यकारी इन्द्रिय भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम्॥ (नन्दीमवृ प ४१) स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र--इन चार इन्द्रियों का अपने विषय के साथ उपश्लेष होता है. इसलिए ये प्राप्यकारी हैं। (द्र छत्र, महाप्रातिहार्य) स च विषयेण सहोपश्लेषः प्राप्यकारिष्वेव स्पर्शन-रसनप्रातीच्छिक घ्राण-श्रोत्र-लक्षणेषु चतुरिन्द्रियेषु भवति, न तु नयनमनसोः। ज्ञान आदि की विशिष्ट आराधना के लिए दूसरे गण से (विभा २०४ वृ) आकर अन्य गण के आचार्य की उपसंपदा स्वीकार करने (द्र अप्राप्यकारी इन्द्रिय) वाला। प्राभृत ये गच्छान्तरवासिनः स्वाचार्यं पृष्ट्वा गच्छान्तरेऽनुयोगश्रव- १. पूर्व के वस्तु का एक अध्याय। णाय समागच्छन्ति अनुयोगाचार्येण च प्रतीच्छ्यन्ते अन् प्राभृतादयः पूर्वान्तर्गताः श्रुताधिकारविशेषाः। मन्यन्ते ते प्रातीच्छिका उच्यन्ते। (नन्दी ४२ मवृ प५४) (अनुमवृ प २१६) प्रातीत्यिकी क्रिया २. सारभूत ग्रंथ। बाह्य वस्तु के सहारे होने वाली प्रवृत्ति । 'पाहुडं' प्राभृतं सारभूतं शास्त्रम्। (चाप्रा २ श्रुवृ) बाह्य वस्तु प्रतीत्य-आश्रित्य भवा प्रातीत्यिकी। प्राभृतप्राभृतिका (नन्दी २ मवृ प ३९) अध्याय का अवान्तर प्रकरण। (अनु ५७२ टि पृ ३२७) प्रादुष्करण उद्गम दोष का एक प्रकार। देय वस्तु को अंधकार से प्राभृतिका हटाकर प्रकाशित स्थान में रखना, अंधकारयुक्त स्थान को १. उद्गम दोष का एक प्रकार । साधु को मोदक आदि का प्रकाशित करने के लिए दीवार में छिद्र करना अथवा मणि, दान देने के लिए विवाह आदि के प्रसंगों को निर्धारित समय दीपक, अग्नि आदि से उसे प्रकाशित करना। से पहले अथवा पश्चात् करना। प्रादुष्करणं सान्धकारस्थितस्य वस्तुनो दीपादिना प्रकाशकरणं साधुविषये साधूनामागमनं ज्ञात्वा कोऽप्येवं करोति, प्रतिष्ठिमध्याद् बहिः सप्रकाशे स्थापनं वा। (प्रसा ५६४ उवृ) तलग्नात् पूर्वं पश्चाद् वा साधूनां मोदकादिप्रतिलाभनार्थम्। यदन्धकारव्यवस्थितस्य द्रव्यस्य वह्नि-प्रदीप-मण्यादिना (पिनिवृ प ५५) भित्त्यपनयनेन वा बहिर्निष्कास्य द्रव्यधारणेन वा प्रकटकरणं २. अध्याय का एक प्रकरण। (अनु ५७२ टि पृ ३२७) तत् प्रादुष्करणम्। (योशा १.३८ वृ पृ १३३) ३. इन्द्र आदि सुरगण के द्वारा की गई समवसरण की रचना, महाप्रातिहार्य आदि। प्रादोषिकी क्रिया प्राभृतिका सुरेन्द्रादिकृता समवसरण-रचना। मात्सर्य, क्रोध आदि के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति। (बृभा ९९६ वृ) प्रद्वेषो-मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी। जा तित्थगराण कता, वंदणया वरिसणादि पाहुडिया। (स्था २.८ वृ प ३८) या तीर्थकराणां सुरवरैर्भक्त्या वन्दना वर्षणादिका आदिप्राप्ति ऋद्धि शब्दात् पुष्पवृष्टिप्राकारत्रयादिकरणपरिग्रहः प्राभृतिका कृता। विक्रिया ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि से सम्पन्न साधक (व्यभा ३७६८ वृ प ११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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