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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १९५ प्रमितिः-फलम्। फलञ्च साध्यमिति। (भिक्षु १.२ वृ) (भिक्षु ६.१४ ७) प्रमेय न्याय का एक अंग। प्रमाण का विषय, अनेकान्तात्मक वस्तु। प्रमेयं-वस्तु। (भिक्षु १.२ वृ) तस्य (प्रमाणस्य) विषयः सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्तु। (प्रनत ५.१) (द्र वस्तु) प्रमेयत्व सामान्य गुण का एक प्रकार। वस्तु का प्रमाण द्वारा ज्ञेय होना। प्रमाणेन परिच्छेद्यं प्रमेयं प्रणिगद्यते। (द्रत ११.३) प्रमाणविषयता-प्रमेयत्त्वम्। (जैसिदी १.३८ वृ) प्रमोद भावना वन्दन, स्तुति, वर्णवाद, मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा प्रकट होने वाला मानसिक हर्षोल्लास और अन्तर्भक्तिकृत प्रयोगगतिः इयं देशान्तरप्राप्तिलक्षणा द्रष्टव्या, सत्यमन:प्रभृतिपुद्गलानां जीवेन व्यापार्यमाणानां यथायोगमल्पबहुदेशान्तरगमनात्। (प्रज्ञा १६.१८ वृ प ३२८) प्रयोगपरिणाम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से होने वाला जीव का चेष्टारूप परिणाम। प्रयोगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमात् क्षयाद् वा चेष्टास्वरूप: परिणामः प्रयोगपरिणामः । (तभा १०.५ वृ) प्रयोगबन्ध जीव के द्वारा अपने आत्मप्रदेशों की प्रयत्नजन्य संरचना तथा पौद्गलिक वस्तुओं की व्यवस्था। प्रयोगो-जीवव्यापारस्तेन घटितो बन्धः प्रायोगिकः औदारिकादिशरीरजतुकाष्ठादिविषयः। (तभा ५.२४ वृ) प्रयोगसम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। वाद-कौशल, जिसका प्रयोग क्षेत्र आदि की स्थिति को देखकर किया जाता है। पओगसंपदा चउव्विधा पण्णत्ता, तं जहा-आतं विदाय वादं पउंजित्ता भवति, परिसं विदाय वादं पउंजित्ता भवति, खेत्तं विदाय वादं पउंजित्ता भवति, वत्थु विदाय वादं पउंजित्ता भवति।से तं पओगसंपदा। (दशा ४.१२) राग। अपास्ताशेषदोषाणां वस्ततत्त्वावलोकिनाम। गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः॥ (योशा ४.११९) वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः। (तवा ७.११.२) प्रलम्ब प्रतिलेखना का एक दोष । वस्त्र को विषमता से पकड़ने के कारण कोनों का लटकना। प्रलम्बो-यद्विषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनम्। (उ २६.२७ शावृ प ५४१) प्रयोग १. वह क्रिया, जो जीव के प्रयत्न से होती है। प्रयोगः-परिस्पन्दक्रिया आत्मव्यापार इति। (प्रज्ञा १६.१ ७ प ३१७) । २. सम्यक्त्व आदि से होने वाला मन, वचन और शरीर का व्यापार। प्रयोगः सम्यक्त्वादिपूर्वो मनःप्रभृतिव्यापारः। (स्थावृ प १४१) (द्र योग) प्रवचन द्वादशांग, आगम। पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे। (द्र तीर्थ) (भग २०.७५) प्रयोगगति जीव के द्वारा प्रवृत्ति में प्रयुक्त होने वाले पुद्गलस्कन्धों की । गति। प्रवचनकुशल वह मुनि, जो सूत्र-अर्थ के प्रतिपादन में पट है, जो नयभंगों से गहन, दुर्द्धर प्रवचन को धारण करता है, उसे पुन:पुनः परावर्तित करता है, जो वाचना देने में समृद्ध है तथा प्रवचन का अहित करने वालों का निग्रह करने में समर्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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