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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १८१ पुर:कर्म पुरुषकार से भिक्खू"वत्थं"कीयं॥ पौरुष के कारण उत्पन्न होने वाला अभिमान-"मैं ऐसा कर अह पुण एवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकर्ड'फासुयं एसणिज्जं सकता हूं'' इस प्रकार की अवधारणा। ति मण्णमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा। (आचूला ५.११) पुरुषकारश्च पौरुषाभिमानः। (भग १.१४६ वृ) ""यो ददाति तस्मात् पुरुषादपर: परुषः परुषान्तर: तत्कतं"। ."पुरुषान्तरकृतम्' अन्यार्थं कृतं "अविशोधिकोटिर्यथा तथा पुरुषयुग न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु पुरुषान्तरकृतात्मीकृतादिविशिष्टा शिष्य-प्रशिष्य के क्रम में व्यवस्थित पुरुषयुग। कल्पते। (आवृ प ३२५, ३२६) पुरुषा:-शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता युगानीव-काल मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृतापिन कल्पते। विशेषा इव क्रमसाधर्म्यात् पुरुषयुगानि। (आवृप ३६१) (सम ४४.२ वृ प ६४) पुरोहितरत्न पुरुषलिंगसिद्ध चक्रवर्ती के सात पंचेन्द्रिय रत्नों में से एक रत्न, जो शांतिकर्म वह सिद्ध, जो पुरुष की शरीर-रचना में मुक्त होता है। आदि करता है। पुल्लिङ्गे शरीरनिर्वृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुरोहितः-शान्तिकर्मादिकृत्। (प्रसावृ प ३५०) पुल्लिङ्गसिद्धाः। (नन्दी ३१ मवृ प १३३) पुरुषवेद भिक्षा का एक दोष । साधु को देखकर भिक्षा देने के निमित्त नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । पुरुषवेदमोहकर्म पहले सजीव जल से हाथ, कड़छी आदि धोना। के उदय से पुरुष में स्त्री के प्रति होला वासनात्मक पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्ठणं हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्म संवेदन। भण्णइ। (द ५.१.३२ जिचू पृ १७८) पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पुरुषवेदः। (प्रज्ञा १८.६१ वृ प ४६८,४६९) पुलाक पुरिसवेदेदवग्गिजालसमाणे पण्णत्ते। (जीवा २.९८) निर्ग्रन्थ का पहला प्रकार । संयम को कुछ असार करने वाला। संयमवानपि मनाक् तमसारं कुर्वन् पुलाकः इत्युच्यते। पुरुषादानीय (भग २५.२७८ वृ) लोकमान्य, जनता के द्वारा जिसका आदर्श और जिसकी पुलाएपंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणपुलाए, दंसणवाणी आदेय होती है। अर्हत् पार्श्व का एक विशेषण। पुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुमपुलाए नामं 'पुरिसादाणीयस्स' त्ति पुरुषाणां मध्ये आदीयत इत्यादानीय पंचमे॥ (भग २५.२७९) उपादेयः। (स्था ८.३७ वृ प ४०८) पुलाक लब्धि पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे"। लब्धि का एक प्रकार। वह योगज विभूति, जो इन्द्र के (सम १००.४) समान ऋद्धि वाली तथा चक्रवर्ती की विशालतम सेना का पुरुषान्तकरभूमि ध्वंस करने में समर्थ होती है। (प्रसा ६९३) (दशाचू प ६५) लद्धिपुलाओ पुण जस्स देविंदरिद्धिसरिसा रिद्धी। सो (द्र युगान्तकरभूमि) सिंगणायिकज्जे समुप्पण्णे चक्कवट्टि पि सबलवाहणं चुण्णेउं समत्थो। (उशावृ प २५६) पुरुषान्तरकृत (द्र लब्धिपुलाक) वह वस्तु (क्रीत वस्त्र आदि), जो साधु के लिए अग्राह्य है, वह किसी गृहस्थ के द्वारा परिभुक्त/प्रयुक्त होने पर ग्राह्य हो पुष्करवरद्वीपार्ध जाती है। अर्धतृतीय द्वीप का एक भाग। वह द्वीपार्ध, जो कालोद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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