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________________ १६६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश पञ्चेन्द्रियरत्न सकता है। चक्रवर्ती के वे सात रत्न, जो पञ्चेन्द्रिय होते हैं-स्त्री, अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहुविहाण पत्ताणं। सेनापति, गृहपति, पुरोहित, वर्धकी, अश्व, हस्ती। जा उवरि वच्चदि गुणी सा रिद्धी पत्तचारणा णाम॥ सेनापत्यादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि। (प्रसाव प ३५१) (त्रिप्र ४.१०४०) पटबुद्धि पदविभाग सामाचारी वह मुनि, जिसकी बुद्धि विशिष्ट वक्ता के द्वारा निरूपित कल्प और व्यवहार-इन दो आगमों (छेदसूत्रों) में प्रतिपादित प्रभूत सूत्र और अर्थ को पटवत् (पट में वस्तु के धारण की विधि और निषेध। शक्ति होती है) धारण करने में समर्थ होती है। पदविभागसामाचारी कल्पव्यवहारः । तत्रौघसामाचारी पद'पडबुद्धि' त्ति पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविध विभागसामाचारीच नवमपूर्वान्तर्वर्त्ति यत् तृतीयं सामाचारी वस्त्वस्ति, तत्रापि विंशतितमात् प्राभृतात् साध्वनुग्रहार्थं प्रभूतसूत्रार्थपुष्पफलग्रहणसमर्थतया बुद्धिर्येषां ते तथा। भद्रबाहुस्वामिना निर्मूढा। (औप १.२४ वृप५२) ____ (ओनिवृ प १) पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि पण्डित (आवनि ६६५ हावृ पृ १७२) १. वह मुनि, जो परित्यक्त भोगों के पुनः सेवन करने से होने पदस्थ ध्यान वाले दोषों को जानता है। मंत्र आदि पदों का आलंबन लेकर किया जाने वाला ध्यान। पंडिया णाम चत्ताणं भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परि यत्पदानि पवित्राणि, समालम्ब्य विधीयते। जाणंती। (द २.११ जिचू पृ९२) तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानसिद्धान्तपारगैः॥ (योशा ८.१) २. जो सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होता है। पण्डिताः-सम्यग्ज्ञानवन्तः। (दहावृ प ९९) पदहीन ३. मुनि, वह जीव, जो सर्वथा विरत है। जो , त्व का ज्ञाना का एक अतिचार । ग्रंथ में प्रयुक्त शब्दों को छोड़कर विज्ञाता-संयति है। उच्चारण करना। विरई पडुच्च पंडिए आहिज्जइ। (सूत्र २.२.७५) पदेनैवोनम्। (आवहावृ २ पृ१६१) फलवद्विज्ञानसंयुक्तत्वात् पण्डितो-बुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः। पदानुसारिणी बुद्धि (स्था ३.५१९ वृ प १६५) बुद्धि ऋद्धि का एक प्रकार। एक सूत्रपद के आधार पर पण्डित मरण सम्पूर्ण सूत्रपदों को जान लेने वाली योगज विभूति। संयति का मरण। जो सुत्तपएण बहुं सुयमणुधावइ पयाणुसारी सो॥ पण्डिताण मरणं पण्डितमरणं, विरतानामित्यर्थः।। (विभा ८००) (उचू पृ १२८) पण्डित वीर्य पद्मलेश्या वीर्यलब्धि का एक प्रकार। चारित्रमोहकर्म और वीर्यान्तराय प्रशस्त लेश्या का दूसरा प्रकार। कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति। संयति का संयममय १. पशस्त भावधारा, प्रतनु कषाय और उपशांत कषाय से संबंधित चैतन्य की एक रश्मि। पुरुषार्थ। (भग ८.१४५) (द्र बालवीर्य) पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए। पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ।। पत्रचारण तहा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए। चारण ऋद्धि का एक प्रकार । इस ऋद्धि के द्वारा साधक पत्तों एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे॥ के जीवों का उपघात किए बिना उनके ऊपर से गमन कर (उ ३४.२९,३०) (द्र भावलेश्या) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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