SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १५३ अन्य अंशों का निराकरण न करने वाला ज्ञाता का विशेष सिर और मुख का भाग कृष्णश्याम आभा वाला होता है, अभिप्राय। जिसकी गति ललित होती है, जिसके सिर पर फण किए नयः सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोधः। हुए सर्प का चिह्न है। देवेन्द्र शक्र के लोकपाल वरुण की (अनु ७५ मवृ प ४०) आज्ञा में रहने वाला देववर्ग। अनिराकृतेतरांशो वस्त्वंशग्राही प्रतिपत्तुरभिप्रायो नयः। शिरोमुखेष्वधिकप्रतिरूपाः कृष्णश्यामा मृदुललितगतयः (भिक्षु ५.१) शिरस्सु फणिचिह्ना नागकुमाराः। (तभा ४.११) नागकुमारा नागकुमारीओ"तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भानयगति रिया सक्कस्स देविंदस्स देवरणो वरुणस्स महारण्णो अपने-अपने मत का सापेक्ष दृष्टि से प्रतिपादन। आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिटुंति। (भग ३.२६२) यन्नयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यव- नागपर्यापनिका स्थापनं सा नयगतिः। (प्रज्ञा १६.४६ वृ प ३२९) कालिक श्रत का एक प्रकार । वह अध्ययन. जिसका परावर्तन नयाभास करने से नागकुमार अपने स्थान पर स्थित रहकर वंदना, अपने अभिप्रेत अंश के अतिरिक्त अंश का अपलाप करने नमस्कार करता है और श्रृंगनादित जैसे कार्यों में वर भी देता वाला। स्वाभिप्रेतादंशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः। (प्रनत ७.२) 'णागपरियाणिय'त्ति अज्झयणे णाग त्ति-नागकुमारे, तेसु (द्र दुर्नय) समयनिबद्धं अज्झयणं, तं जदा समणे उवयुत्ते परियट्रेति तया अकतसंकप्पस्स वि ते णागकुमारा तत्थत्था चेव परियाणंति, नरकगति वंदंति णमंसंति भत्तिबहुमाणं च करेंति, सिंगणाइयकज्जेसु गतिनामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव नारक य वरया भवंतीत्यर्थः। (नंदी ७८ चू पृ६०) पर्याय का वेदन करता है। नाग्न्य परीषह यन्निमित्त आत्मनो नारकभावः तन्नरकगतिनाम। एवं शेषे अचेल अवस्था में आने वाली स्थितियां, जो मुनि के द्वारा ष्वपि योज्यम्। (तवा ८.११) समभावपूर्वक सहनीय हैं। (तसू ९.९) नरदेव (द्र अचेल परीषह) वह मनुष्य, जो चक्रवर्ती की प्रतिष्ठा को प्राप्त है। नाम कर्म नरदेवाः-चक्रवर्तिनो रत्नचतुर्दशकाधिपतयः शेषमनुजो वह कर्म, जिसके द्वारा शरीर की संरचना होती है और अनेक त्कृष्टत्वात्। (तभा ४.१ वृ) ""जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी"मणुस्सिंदा"। से" पौद्गलिक अवस्थाओं का सृजन होता है। नरदेवा॥ (भग १२.१६५) चतुर्गतिषु नानापर्यायप्राप्तिहेतु नाम। (जैसिदी ४.३ वृ) गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम। नव खोटक (प्रज्ञावृ प ४५४) प्रतिलेखनविधि का एक प्रकार। वस्त्र के प्रत्येक पूर्व में तीन-तीन बार खोटक (प्रमार्जन) करना। एक भाग में नौ नाम निक्षेप खोटक होते हैं। निक्षेप का एक प्रकार । मूल शब्द के अर्थ की अपेक्षा न रखने नवखोड त्ति खोटकः समयप्रसिद्धाः स्फोटनात्मका: वाला संज्ञाकरण। जैसे-किसी अनक्षर व्यक्ति का नाम कर्तव्याः। (उ २६.२५ शावृ प५४१) उपाध्याय रखना। तदर्थनिरपेक्षं संज्ञाकर्म नाम। (जैसिदी १०.६) नागकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार। वह देववर्ग, जिसका। नामप्रत्यय __ वह कर्मपुद्गल समूह, जो ज्ञानावरण आदि कर्म के नामानुरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy