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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १४९ धर्मध्यान प्रशस्त ध्यान का एक प्रकार। वस्तुधर्म--सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता। (तसू ९.२९) (द्र धर्म्यध्यान) धर्मरुचि १. रुचि का एक प्रकार। केवलिप्रज्ञप्त धर्म में होने वाली रुचि। २. धर्मरुचिसम्पन्न व्यक्ति। सो अस्थिकायधम्मं, सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च। सद्दहइ जिणाभिहियं, सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो॥ (उ २८.२७) धर्मलेश्या प्रशस्त भावधारा । तेजः, पद्म और शुक्ल-ये तीन लेश्याएं, जिनसे जीव प्रायः सुगति में उत्पन्न होता है। तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गई उववज्जई बहुसो॥ __ (उ ३४.५७) धर्मी जो अनुमानकाल में साध्य बनता है। पक्ष इसका पर्यायवाची नाम है। अनुमितौ तु साध्यधर्मविशिष्टोधर्मी, यथा अग्निमान् पर्वतः । धर्मी एव पक्षः। (भिक्षु ३.९ वृ) धर्मोपदेश उन्मार्ग से निवर्तन, संदेह से व्यावर्तन और अपूर्व पदार्थों के प्रकाशन के लिए किया जाने वाला धर्म का उपदेश। उन्मार्गनिवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थप्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्यायते। (तवा ९.२५) धर्म्यध्यान सत्य को जानने के लिए किया जाने वाला विचयध्यान। आज्ञा-अपाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्। (जैसिदी ६.४३) (द्र धर्मध्यान, विचयध्यान) धातकीखण्ड अर्धतृतीय (अढ़ाई) द्वीप का एक भाग। वह द्वीप, जो कालोद समुद्र से परिक्षिप्त है, जिसका विस्तार आठ लाख योजन है। धातकीखण्डद्वीपः कालोदसमुद्रेण परिक्षिप्तः। (तभा ३.८) (द्र अर्धतृतीय द्वीप, समयक्षेत्र) धात्रीपिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार। धाय की तरह बालक को क्रीड़ा आदि में प्रवृत्त कर भिक्षा लेना। बालस्य क्षीर-मन्जन-मण्डन-क्रीडनाऽझरोपणकर्मकारिण्यः पञ्च धात्र्यः । एतासां कर्म भिक्षार्थं कुर्वतो मुनेर्धात्रीपिण्डः । (योशा १.३८ वृ पृ १३५) धर्मान्तेवासी वह शिष्य, जो धर्म का प्रतिबोध पाने के लिए गुरु की . सन्निधि में रहता है, गुरु की उपसम्पदा स्वीकार करता है। धर्मान्तेवासी धर्मप्रतिबोधनत: शिष्यः, धार्थितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः। (स्था ४.४२४ वृप २३०) धर्मास्तिकाय द्रव्य अथवा अस्तिकाय का एक प्रकार। गति तत्त्व, अधर्मास्तिकाय का प्रतिपक्षी। गतिक्रिया में प्रवृत्त होने वाले जीव और पुद्गलों की गति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य, जो द्रव्य की अपेक्षा से एक द्रव्य है, शाश्वत है, अरूपी है, लोकप्रमाण है, असंख्येयप्रदेशी है। गमनप्रवृत्तानां जीवपुद्गलानां गतौ उदासीनभावेन अनन्यसहायकं द्रव्यं धर्मास्तिकायः। (जैसिदी १.४ वृ) । दव्वओणं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे।खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते। कालओ'सासए"।भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे। गणओ गमणगणे"असंखेज्जा धम्मत्थिकायपएसा"। (भग २.१२५,१३४) (द्र अधर्मास्तिकाय) धारणा १. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार। अवाय के अनंतर निर्णीत अर्थ (निर्णयात्मक ज्ञान) की अवस्थिति, जो अविच्युति, वासना और स्मृति रूप है। तयणंतरं तयत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगी। कालंतरे य जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ॥ (विभा २९१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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