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________________ १३८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश दिवसचरिमं पच्चक्खाइ चउन्विहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं। (आव ६.८) दीर्घकालिकी संज्ञा अतीत, वर्तमान और भविष्य का दीर्घकालिक चिंतन। इह दीहकालिगी कालिगि त्ति सन्ना जया सुदीहं पि। संभरइ भूयमेस्सं चिंतेइ य किह णु कायव्वं ।। (विभा ५०८) (द्र मन) दिव्य ध्वनि महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। तीर्थंकर के समवसरण में धर्मोपदेश के समय देवों के द्वारा की जाने वाली ध्वनि। सरसतरसुधारससहोदरः"सकलजनानन्दप्रमोददायी दिव्यो ध्वनिर्वितन्यते। (प्रसावृ प १०६) .."सव्वेसिं सन्नीणं, जोयणनीहारिणं भगवं॥ ..."साधारणेन' स्वस्वभाषापरिणमनसमर्थेन योजनव्यापिना शब्देन भगवान् धर्मं कथयति।"भगवतो दिव्यध्वनिरशेषाणामपि समवसरणवर्त्तिनां संज्ञिजन्तूनां जिज्ञासितार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनमुपजायते। (बृभा ११९३ वृ पृ ३७०) दुक्खे । दुःख १. अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में किया जाने वाला पाप कर्म। पावे कम्मे जे य कडे जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ सव्वे से (भग ७.१६०) २. इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से होने वाली ग्लानि। इष्टसंयोगाऽनिष्टनिवृत्तेराह्लादः सुखम्। तद्विपर्ययो दुःखम्। तस्याह्लादस्य विपर्ययो ग्लानिर्दःखमभिधीयते। (जैसिदी ९.२२,२३ वृ) दीक्षा सर्व सावध प्रवृत्ति का आजीवन त्याग, महाव्रतों का स्वीकरण। ""दीक्षा तु व्रतसंग्रहः॥ (अचि ३.४८७) पापाद वजितः प्रव्रजितो भागवतीं दीक्षां प्रपन्न इत्यर्थः। (विभा १६०४ वृ पृ५८९) (द्र प्रव्रज्या, सामायिकचारित्र) दीपक सम्यक्त्व तत्त्वश्रद्धा से शून्य मिथ्यादृष्टि व्यक्ति, जो दूसरे में तत्त्वश्रद्धा का उद्दीपन कर देता है, उसकी दृष्टि दीपक सम्यक्त्व कहलाती है। यत्तु स्वयं तत्त्वश्रद्धानरहित एव मिथ्यादृष्टिः परस्य धर्मकथादिभिस्तत्त्वश्रद्धानं दीपयत्युत्पादयति तत्संबन्धि सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते, यथाऽङ्गारमर्दकादीनाम् , इदं सम्यक्त्वहेतुत्वात् सम्यक्त्वमुच्यते, परमार्थतस्तु मिथ्यात्वमेवेति। (विभा २६७५ वृ पृ १४२) दीप्ततपस्वी वह मुनि, जिसका दीर्घकालीन उपवास करने पर भी कायिक, वाचिक और मानसिक बल प्रवर्धमान रहता है। उसका मुख दुर्गन्ध-रहित, श्वास उत्पल की भांति सुरभित और शरीर अप्रच्युत महादीप्ति वाला होता है। महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमानकायवाङ् मानसबलाः विगन्धरहितवदना: पद्मोत्पलादिसुरभिनिःश्वासा अप्रच्युतमहादीप्ति-शरीरा दीप्ततपसः। (तवा ३.३६) दुःखशय्या अश्रद्धा आदि के कारण मुनि-जीवन में असमाधि उत्पन्न करने वाली चित्त की अवस्था। दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः प्रवचनाश्रद्धानपरलाभप्रार्थनकामाशंसनस्नानादिप्रार्थनविशेषिताः प्रज्ञप्ताः। (स्था ४.४५० वृ प २३५) दुःस्वरनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव का स्वर अप्रीतिकारक होता है। यदुदयात् स्वरः श्रोतृणामप्रीतये भवति। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) दुर्गति दुःखद गति, वह गति, जिसमें जीव सुख, सद्गुण आदि की दृष्टि से विपन्न होता है, जैसे-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति। तओ दग्गतीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णेरड्यदुग्गती, तिरिक्खजोणियदुग्गती, मणुयदुग्गती। दुष्टा गतिर्दुर्गतिर्मनुष्याणां दुर्गतिर्विवक्षयैव तत्सुगतिरप्यभिधास्यमानत्वाद्। (स्था ३.३७२ वृ प १३७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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