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________________ १३६ दर्शनबोधि : - दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नः श्रद्धान लाभ: । (स्था २ वृ प ९१) (द्र बोधि) दर्शनमोहनीय मोहनीय कर्म का एक प्रकार, जो सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधा डालता है। दर्शनं - सम्यक्त्वं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् । (प्रज्ञा २३.३३ वृ प ४६७) दर्शनविनय तीर्थंकर द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्व के प्रति निःशङ्कित भाव से होने वाली श्रद्धा और समर्पण । दव्वाण सव्वभावा उवदिट्ठा जे जहा जिणवरेहिं । ते तह सद्दहति नरो दंसणविणयो भवति तम्हा ॥ (दनि २९२ ) दर्शनश्राद्ध वह सम्यकदृष्टि, जो व्रती नहीं है । ‘दर्शनश्राद्धः' अविरतसम्यग्दृष्टिर्भवति । (बृभा १५४२ वृ) दर्शनसप्तक मोहकर्म की वे सात प्रकृतियां, जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में अवरोध पैदा करती हैं । (बृभा ११८ वृ) (द्र सम्यक्त्व) दर्शनाचार सम्यग्दर्शन की पुष्टि के लिए किया जाने वाला आचरण, जो निःशंकित आदि के भेद से आठ प्रकार का है। दर्शनं - सम्यक्त्वं तदाचारो निःशङ्कितादिरष्टधा । (स्था ५.१४७ वृ प ३०९ ) निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥ (उ २८.३१) Jain Education International दर्शनावरणीय कर्म वह कर्म, जिसके उदय से दर्शन - सामान्य बोध आवृत होता है। दर्शनं – ''''सामान्यग्रहणात्मको बोधः तस्यावरणीयं दर्शना - वरणीयम् । (प्रज्ञा २३.१ वृ प ४५३) दशपूर्वर (द्र दशपूर्वी) दशपूर्वी वह मुनि, जो दश पूर्वो (उत्पादपूर्व यावत् विद्यानुवादपूर्व) का अध्ययन कर चुका है। (व्यभा ४०३) दशमभक्त चार दिन का उपवास । दशममुपवासचतुष्टयलक्षणम् । ''''दसमेणं''।” दिनचतुष्कानन्तरं जैन पारिभाषिक शब्दकोश दशाश्रुतस्कन्ध (व्यभा ४०३७) (द्र दशा) (प्रसावृ प १६९) (द्र चतुर्थभक्त) दशवैकालिक उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । श्रुतकेवली शय्यंभव द्वारा निर्यूढ वह आगम, जिसमें चरण - व्रत आदि, करणपिण्डविशुद्धि आदि तथा आचार - गोचर विधि का निरूपण किया गया है। (नन्दी ७७) अहिगारो । होंति ॥ अपुहत्तपुहत्ताइं निद्दिसिउं एत्थ होइ चरणकरणाणुयोगेण तस्स दारा इमे मागं पडुच्च सेज्जंभवेण निज्जूहिया दसज्झयणा । वेयालियाइं ठविया, तम्हा दसकालियं नामं ॥ (दनि ४,१४) For Private & Personal Use Only भुक्तवान्। दशा कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें असमाधिस्थान, गणसम्पदा, पर्युषणाकल्प आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक । (आभा ९.४.७ ) (नन्दी ७८) काचित् प्रतिविशिष्टावस्था यतीनां यासु वर्ण्यते ता दशाः । (तभा १.२० ) असमाहि य सबलत्तं, अणसादण गणिगुणा मणसमाही । सावग- भिक्खूपडिमा कप्पो मोहो निदाणं च ॥ (दशानि ८ ) (बृभा ६९३ वृ) www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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