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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १३१ तणेसु सयमाणस्स, हुज्जा गायविराहणा॥ आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा। एवं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया॥ (उ २.३४,३५) नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव तीर्थ का प्रवर्तक होता है। तीर्थकरत्वनिवर्तकं तीर्थकरनाम। (तभा ८.१२) तीर्थंकरसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थंकर अवस्था में मुक्त होता है। रिसभादयो तित्थकरा, ते जम्हा तित्थकरणाम-कम्मुदयभावे द्विता तित्थकरभावातो वा सिद्धा तम्हा ते तित्थकरसिद्धा। (नन्दी ३१ चू पृ २६) तीर्थसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थ में प्रव्रजित होकर मुक्त होता है। जे तित्थे सिद्धा ते तित्थसिद्धा। (नन्दी ३१ चू प२६) तीव्रकामाभिनिवेश (तसू ७.२३) (द्र कामभोगतीव्राभिलाषा) तेजस्काय जीवनिकाय का तीसरा प्रकार। (आचूला २.४१) (द्र तेजस्कायिक) तेजस्कायिक वे जीव, जिनका शरीर अग्नि है। तेजः-उष्णलक्षणं प्रतीतम्, तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजः-कायाः, तेजःकाया एव तेजःकायिकाः। (दहावृ प १३८) (द्र तेजस्काय) तेजोलब्धि तैजस शरीर का विकास करने पर उत्पन्न होने वाली तैजस शक्ति। इसके द्वारा शाप और अनुग्रह दोनों किए जा सकते तीव्रानुभाव १. वह कर्मबंध, जिसका अनुभाव तीव्र होता है, चतुःस्थानिक रसवाला होता है। तीव्रानुभावाश्चतुःस्थानिकरसत्वेन प्रकरोति। (उ २९.२३ शावृ प ५८५) २. वह कर्मबंध, जिसके मन्दानुभाव की तीव्रानुभाव वाला किया जाता है। (द्र मन्दानुभाव) तुच्छौषधिभक्षण उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत का एक अतिचार। असार धान्य का आहार, जिससे जीवों की विराधना अधिक हो, तृप्ति कम हो। 'तुच्छोसहिभक्खणय' त्ति तुच्छा:-असारा ओषधयः अनिष्पन्न- मुद्गफलीप्रभृतयः तद्भक्षणे हि महती विराधना स्वल्पा च तत्कार्या तृप्तिः। (उपा १.३८ वृ पृ १६) तृणस्पर्श परीषह परीषह का एक प्रकार। तृण आदि की तीक्ष्णता अथवा कठोरता से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सियो। तेज इत्यग्निः, तेजोगुणोपेतद्रव्यवर्गणासमारब्धं तेजोविकारस्तेज एव वा तैजसमुष्णगुणं शापानुग्रहसामर्थ्याविर्भावनं तदेव यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति। (तभा २.३७ वृ) (द्र तेजोलेश्या) तेजोलेश्या १. प्रशस्त लेश्या का पहला प्रकार । प्रशस्त भावधारा, नैतिक और धार्मिक अनुशासन में गहरी आस्था से संबंधित चैतन्य की एक रश्मि। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवं॥ पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो तेउलेसं तु परिणमे।। (उ ३४.२७,२८) (द्र भावलेश्या) २. तेजोलेश्या में हेतुभूत अरुण वर्ण वाले पुद्गल। अरुण (बालसूर्य जैसा) आभामण्डल। हिंगुलयधाउसंकासा तरुणाइच्चसन्निभा। सुयतुंडपईवनिभा तेउलेसा उ वण्णओ। (उ ३४.७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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