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________________ १२२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश जीवभाव जीवत्व, चैतन्य। जीवे णं सउदाणे "सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसतीति वत्तव्वं सिया॥ जीवभावं ति जीवत्वं चैतन्यम्। (भग २.१३६ वृ) जीवमध्यप्रदेश जीव के असंख्य प्रदेशों के मध्यभाग में होने वाली अष्टप्रदेशात्मक विशिष्ट रचना, जिसकी संज्ञा रुचक है। तत्थ णं जे से अणादीए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं। (भग ८.३५४) (द्र मध्यप्रदेश) जीवविपाकिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका विपाक जीव में ही होता है, अन्यत्र शरीर आदि में नहीं, जैसे-ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि। जीवे जीवगते ज्ञानादिलक्षणे स्वरूपे विपाकस्तदनुग्रहोपघातादिसंपादनाभिमुख्यलक्षणो यासां ताः जीवविपाकिन्यः। (कप्र पृ ३६) जीववैदारणिका क्रिया वैदारणिका क्रिया का एक प्रकार। जीव के विषय में स्फोटअप्रकाशनीय के प्रकाशन से होने वाली क्रिया। (स्था २.३१) विदारयति-स्फोटयतीति, अथवा जीवमजीवं वाऽऽसमानभाषेष विक्रीणति सति द्वैभाषिको विचारयति परियच्छावेड़ त्ति भणितं होति, अथवा जीवं-पुरुषं वितारयति-प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः, असद्गुणैरेतादृशः तादृशस्त्वमिति, पुरुषादिविप्रतारणबुद्ध्यैव, वाऽजीवं भणत्येतादृशमेतदिति यत्सा 'जीववेयारणिआऽजीववेयारणिया व'त्ति। (स्था २.३१ वृ प ३९) जीवस्थान कर्मविशुद्धि की तरतमता की अपेक्षा से होने वाले जीवों के चौदह स्थान (भूमिकाएं)। कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता। (सम १४.५) (द्र गुणस्थान) जीवस्पृष्टिजा क्रिया स्पृष्टिजा क्रिया का एक प्रकार। जीव के स्पर्शन से होने वाली राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति। जीवमजीवं वा रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा या सा जीवपृष्टिका जीवस्पृष्टिका वा। (स्था २.२७ वृ प ३९) जीवस्वाहस्तिकी क्रिया स्वाहस्तिकी क्रिया का एक प्रकार। अपने हाथ में रहे हुए जीव के द्वारा किसी दूसरे जीव को मारने की क्रिया। स्वहस्तगहीतेन जीवेन जीवं मारयति सा जीवस्वाहस्तिकी। (स्था २.२७ वृ प ३९) जीवाजीवाभिगम उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें जीव, अजीव और उनके प्रकारों की चर्चा है। (नन्दी ७७) जीवाजीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवाभिगमे य अजीवाभिगमे य॥ (जीवा १.२) जीवाज्ञापनिका क्रिया आज्ञापनिका क्रिया का एक प्रकार। जीव के विषय में आज्ञा देने से होने वाली क्रिया। जीवमाज्ञापयत आनाययतो वा परेण जीवाज्ञापनी जीवानायनी वा। (स्था २.३० वृ प ३९) जीवाप्रत्याख्यान क्रिया अप्रत्याख्यान क्रिया का एक प्रकार । प्रत्याख्यान के अभाव से जीव के संबंध में होने वाली प्रवृत्ति।। जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया। (स्था २.१३ वृ प ३८) जीवारम्भिकी क्रिया आरंभिकी क्रिया का एक प्रकार। जीव के उपमर्दन की तथा अन्य द्वारा हिंसा आदि किये जाने पर हर्षित होने की प्रवृत्ति। जीवसामन्तोपनिपातिकी क्रिया सामन्तोपनिपातिकी क्रिया का एक प्रकार। अपने पास की सजीव वस्तुओं के बारे में जनसमुदाय की प्रतिक्रिया सुनने । पर होने वाली हर्षात्मक प्रवृत्ति। कस्यापि षण्डो रूपवानस्तितं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसयति च तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति जीवसामन्तोपनिपातिकी। (स्था २.२५ वृ प ३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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