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________________ ८८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश कायपरीत वह जीव, जो अकेला ही अपने शरीर का निर्माण करता है। यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतः। (प्रज्ञा १८.१०६ वृ प ३९४) (द्र प्रत्येकशरीर) कायपुण्य संयमी की पर्युपासना करने से होने वाला पुण्य प्रकृति का । बंध। (स्था ९.२५ वृ प ४२८) (द्र मनःपुण्य) कायविनय विनयाह के प्रति काय का कुशल प्रयोग करना। परोक्षस्थित आचार्य आदि को भी बद्धाञ्जलि हो, वंदना आदि करना। मनोवाक्कायविनयास्तु मनःप्रभृतीनां विनयाहेषु कुशलप्रवृत्त्यादिः। (स्था ७.१३० वृ प ३८८) परोक्षेष्वपि कायवाइमनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः। (तवा ९.२३.६) कायबल वह प्राण, जो शारीरिक क्रियाशक्ति के लिए उत्तरदायी है। कायवर्गणावष्टम्भजनितात्मप्रदेशप्रचयशक्तिः कायबलप्राणः। (गोजीप्र १२९) देहोदये शरीरनामकर्मोदये सति कायचेष्टाजननशक्तिरूप: कायबलप्राणः। (गोजाप्र १३१) कायव्यायाम वह प्रवृत्ति, जो शरीर के द्वारा संचालित होती है। 'कायवायामे' त्ति चीयत इति काय:-शरीरं तस्य व्यायामो व्यापारः कायव्यायामः। (स्था १.२१ वृ प १८) कायसंयम 'दौड़ने, कूदने' आदि प्रवृत्तियों की निवृत्ति और शुभक्रियाओं में प्रवृत्ति। कायसंयम इति धावन-वल्गन-प्लवनादिनिवृत्तिः, शुभक्रियासु च प्रवृत्तिः। (तभा ९.६ वृ) कायसंवर शरीर की प्रवृत्ति का निरोध। (स्था १०.१०) (द्र कायगुप्ति) कायबली लब्धि का एक प्रकार । वह मुनि, जो वीर्यान्तराय के प्रकृष्ट क्षयोपशम से उपलब्ध कायबल के कारण एक वर्ष तक कायोत्सर्ग प्रतिमा में खडा रहने पर भी श्रान्त-क्लान्त नहीं होता, जैसे-बाहुबली। वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भतासाधारणकायबलत्वात् प्रतिमयावतिष्ठमानाः श्रमक्लमविरहिता वर्षमात्रप्रतिमाधरा बाहुबलिप्रभृतयः कायबलिनः। (योशा १.८ वृ पृ ४२) काययोग शरीरवर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की शारीरिक शक्ति और प्रवृत्ति। कायः शरीरं""तद्योगाज्जीवस्य वीर्यपरिणामः-शक्ति:सामर्थ्य काययोगः। (तभा ६.१ वृ) काययोगप्रतिसंलीनता प्रतिसंलीनता का एक प्रकार। हाथ, पैर आदि सब अवयवों का कूर्म की भांति संगोपन करना। जण्णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिंदिए सव्वगायपडिसंलीणे चिट्ठइ । से तं कायजोगपडिसंलीणया। (औप ३७) कायसंवेध वह प्रक्रिया, जिसके अनुसार प्राणी का वर्तमान काय से च्युत होकर तुल्य काय में अथवा किसी दूसरे काय में उत्पन्न होना और वहां से च्युत होकर पुनः पूर्ववर्ती काय में जन्म लेना। उप्पलजीवे पुढविजीवे, पुणरवि उप्पलजीवे त्ति। कायसंवेहो त्ति विवक्षितकायात् कायान्तरे तुल्यकाये वा गत्वा पुनरपि यथासम्भवं तत्रैवागमनम्। (भग ११.३० वृ) कायसमाधारण संयम की आराधना में शरीर का नियोजन। 'कायसमाधारणया' संयमयोगेषु शरीरस्य सम्यग्व्यवस्थापनरूपया। __ (उ २९.५९ शावृ प ५९२) कायसुप्रणिधान शरीर की वह अवस्था, जिसमें आत्मा की शुद्धि के लिए स्थिरता अथवा कायोत्सर्ग किया जाता है। तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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