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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश कल्पवतंसिका नौवां उपांग। कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें धर्म की आराधना करने वाले श्रेणिक के दस पौत्रों की सदगति का वर्णन है। (नन्दी ७८) कल्पवृक्ष यौगलिक व्यवस्था में जीवन की अपेक्षाओं को पूरा करने वाला वृक्ष। गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होंति सव्वकप्पतरू । णियणियमणसंकप्पियवस्थूणिं देंति जुगलाणं। (त्रिप्र ४.३४१) या तु कल्पिका सा तदभावात्' रागद्वेषाभावाद भवति। (बृभा ४९४३ वृ) कल्पिकाकल्पिक उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें कल्प और अकल्प का वर्णन है। कप्पमकप्पं च जत्थ सुते वणिज्जति तं कप्पियाकप्पियं। (नन्दी ७७ चू पृ ५७) कल्पोपग देव कल्पोपपन्न देव । वह देव, जो इन्द्र, सामानिक आदि कल्पव्यवस्था वाले देवलोक में उत्पन्न होता है। कल्प्यन्ते-इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिदशप्रकारत्वेन देवा एतेष्विति कल्पा-देवलोकास्तानुपगच्छन्तिउत्पत्तिविषय- तया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः। (उ ३६.२०९ शावृप ७०२) (द्र कल्पातीत देव) कल्पोपपन्न देव (तसू ४.३) (द्र कल्पोपग देव) कल्पस्थित १.पंच महाव्रत की परंपरा में दीक्षित मनि। साधूनां कल्पस्थितिः पञ्चमहाव्रतरूपा। (बृभा ५३४० ७) २. वह मुनि, जो परिहारविशुद्धि चारित्र की साधना के समय गुरु का दायित्व निभाता है। नवानां जनानां मध्यादेकं कल्पस्थितं-गुरुकल्पं कुर्यात्। ___ (बृभा ६४६३ वृ) कल्पस्थिति सामायिक, छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र वाले मुनि की आचार-मर्यादा। कल्पस्य-कल्पाद्युक्तसाध्वाचारस्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीयादेः स्थिति:-मर्यादा कल्पस्थितिः । (स्था ६.१०३ वृ प ३५५) कल्पातीत देव ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान के देव, जो इन्द्र, सामानिक आदि की कल्प-मर्यादा से मुक्त मुक्त होते हैं। कप्पाईया उजे देवा, दुविहा ते वियाहिया। गेविज्जाऽणुत्तरा चेव ॥ (उ ३६.२१२) कल्पान्-उक्तरूपानतीता:-तदपरिवर्तिस्थानोत्पन्नतया निष्क्रान्ता: कल्पातीताः। (उ ३६.२०९ शाव प ७०२) (द्र कल्पोपग देव) कल्याणक प्रायश्चित्तस्वरूप दिया जाने वाला प्रत्याख्यान-विशेष । चतु:कल्याणकं प्रायश्चित्तं "चत्वारि चतुर्थभक्तानि चत्वार्या-चाम्लानि चत्वारि एकस्थानानि"। (बृभा ५३६० वृ) कल्याणकं प्रायश्चित्तं दीयते। (ओनि ३५८ वृ प २९६) कल्याणानुबन्धा निर्जरा वह प्रशस्त निर्जरा, जो स्वर्ग आदि सुगति अथवा मोक्ष का कारण बनती है। प्रशस्तनिर्जराकः-कल्याणनुबन्धनिर्जरः। (भग ६.१ ७) (द्र कुशलमूला निर्जरा) कषाय १. रागद्वेषात्मक उत्ताप, जिससे कषकर्म का आगमन होता कल्पिका राग-द्वेष की प्रेरणा के बिना विशेष परिस्थितिवश की जाने वाली प्रतिषेवणा/दोषाचरण। रागद्वेषात्मकोत्तापः कषायः। (जैसिदी ४.२३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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