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________________ ८२६ पाइअसहमहण्णवो शिआल-स श शिआल (मा) पुं[श्याल] बहू का भाई, श्चिंट (मा) देखो चिट्ठ - स्था। चिटदि साला (प्राकृ १०२, मृच्छ २०४) । (धात्वा १५४ प्राकृ १०३)। ॥ इम सिरिपाइअसहमहण्णवम्मि शमाराइसहसंकलणो छत्तीस इमो तरंगो समत्तो॥ स पु [स] व्यञ्जन वर्ण-विशेष, इसका २ मुक्ति, मोक्ष (भविः राज)जण पुं [भूत] १ सत्य, वास्तविक, सच्चा; 'सब्भूउच्चारण-स्थान दाँत होने से यह दन्त्य कहा [जन] भला प्रादमी, सत्पुरुष (उव; हे । एहिं भावेहि (उवा)। २ विद्यमान (पंचा जाता है (प्राप्र), अण, गण पुं[गण १, ११, प्रासू ७)। त्तम वि [त्तम] ४, २४) याचार ( [ आचार] प्रशस्त पिंगल-प्रसिद्ध एक गण, जिसमें प्रथम के दो अतिशय साधु, सज्जनों में अतिश्रेष्ठ (सुपा प्राचरण (रयण १५)"रूव वि [ रूप ह्रस्व और तीसरा गुरु अक्षर होता है (पिंग) ६५५; श्रा १४; साधं ३)। थाम न प्रशस्त रूपवाला (पउम ८, ६), "ल्लग गार [कार] 'स अक्षर (दनि [स्थामन् प्रशस्त बल (गउड)। धम्मि [ लग] प्रशस्त संवरण, इन्द्रिय-संयम (सूम १०, २) वि [ धार्मिक] श्रेष्ठ धार्मिक (श्रा १२)। २, २, ५७), वाय पुं [वाद] प्रशस्त स देखो सं = सम् (षड् ; पिंग)। नाण न [ज्ज्ञान] उत्तम ज्ञान (था २७)। वाद (सूप २, ७, ५) 'वाया स्त्री स पुं [श्वन्] श्वान, कुत्ता (हे १, ५२, ३, पभ वि [प्रभ] सुन्दर प्रभा वाला [वाच् ] प्रशस्त वाणी (सूत्र २, ७, ५)। ५६ षड् ) । 'पाग पुं [पाक] चण्डाल | (राय)।प्पुरिस पुं[पुरुष] १ सज्जन, स पु [स्व] १ प्रात्मा, खुद (उवा; कुमाः सुर (उव), 'मुहि पुत्री [मुखि] कुत्ते की तरह भला प्रादमी (अभि २०१; प्रासू १२) । २ २, २०६) । २ ज्ञाति, नात (हे २, ११४, आचरण, कुत्ते की तरह भषण-भूकना(णाया किंपुरुष-निकाय के दक्षिण दिशा का इन्द्र षड्) । ३ वि.प्रात्मीय, स्वीय, निजी (उवाः १, ६-पत्र १६०)। वच पुं [पच (ठा २, ३–पत्र ८५)। ३ श्रीकृष्ण (कुप्र प्रोधभा ६; कुमा; सुर ४, ६०)४ न. धन, चाण्डाल (दे १, ६४)। वाग, वाय देखो ४८) । °Cफल वि [फल श्रेष्ठ फलवाला द्रव्य (पंचा ८, प्राचा २, १, १, ११)। "पाग (वै ५६ पान)। (अच्चु ३१) । ब्भाव पुं [ भाव १ ५ कर्म (माचा २, १६, ६) कडभि , स प्र [स्वर ] सुरालय, स्वर्ग (विसे सम्भव, उत्पत्ति (उप ७२६)। २ सत्त्व, गडभि वि [कृतभिद्] निज के किए १८८३)। अस्तित्व (सम्म ३७७ ३८; ३६)। ३ सुन्दर हुए कर्मों का विनाशक (पि १९६ पाचा १, स वि [सत् ] १ श्रेष्ठ, उत्तम (उवाः कुमाः भाव, चित्त का अच्छा अभिप्रायः “सम्भावो ३, ४, १, ४) जण पुं[जन] १ ज्ञाति, कुप्र १४१)। २ विद्यमान; 'नो य उप्पजए पुण उज्जुजरणस्स कोडि विसेसेई' (प्रासू सगा। २. प्रात्मीय लोग (स्वप्न ६७ षड् )।अ-स' (सूम १, १, १, १६)। उरिस पुं १७२; उव; हे २, १९७)। ४ भावार्थ, तंत वि [तन्त्र] १ स्वाधीन, स्व-वश [पुरुष] श्रेष्ठ पुरुष, सजन (गउड)। तात्पर्य (सुर ३, १०१)। ५ विद्यमान पदार्थ (विसे २११२; दे ३, ४३; अच्चु १)।२ कय वि [कृत] संमानित (पएह १, ४- (अरण)। भावदायणा स्त्री [भावदर्शन] न. स्वकीय सिद्धान्त (निचू ११), 'त्थ वि पत्र ६८); देखो किअ) कह वि [कथ] मालोचना, प्रायश्चित्त के लिए निज दोष [स्थ १ तंदुरुस्त, स्वभाव-स्थित । २ सुख सत्य-वक्ता (सं ३२)। "किअ न [कृत] का गुर्वादि के समक्ष प्रकटीकरण (प्रोष | से अवस्थित (पामः पउम २६, ३१; स्वप्न सत्कार, संमान (उत्त १५, ५); देखो कय ७६१) भाविअ वि [भावित सद्- १०६; सुर १०, १०४ सुपा २७६ महाः 'ग्गइ स्त्री [गति] उत्तम गति-१ स्वर्ग।। भाव-युक्त (स २०१, ६६८)। भूअ वि सण)। पक्ख पुं [पक्ष] १ सार्मिक, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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