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________________ पाइअसद्दमहण्णवो वप्पिअ-वय चक्रवर्ती राजा हरिषेण की माता का नाम वमग वि [वामक] उलटी करनेवाला (चेइय (कुमा)। कर्म. भवि, वकृ. वक्खमाण (पउम ८, १४४ सम १५२) १०३) (विसे १०५३)। संकृ. वइत्ता, वच्चा, वप्पिअ [दे] १ केदार, खेत (षड्)। वमण न [वमन उलटी, वान्ति, के (आचाः। वोत्तूण (ठा ३, १-पत्र १०८सूप २, २ नपुंसक-विशेष (पुप्फ १२६)। ३ वि. पाया १, १३) १, ६, हे ४, २११; कुमा)। हेकृ. वत्तए, रक्त, राग-युक (षड़)। वमाल सक [पुञ्जय ] १ इकट्टा करना। वत्तं, वोत्तुं (आचा; अभि १७२; हे ४, वप्पिण पुंन [दे] १ केदार, खेत (दे ७, ८५ । २ विस्तारना । वमालइ (हे ४, १०२; २११; कुमा)। कृ. वच्च, वत्तव्य, वोत्तव्य औप; णाया १, १ टी-पत्र २, पान पउम (विसे २; उप १३६ टी; ६४८ टी; ७६८ २, १२; परह १, १, २, ५)। २ वि. वमाल पुं[दे] कलकल, कोलाहल (दे ६, टी पिंड ८७; धर्मसं ६२२ सुर ४, ६७; उषित, जिसने वास किया हो वह (दे ७, ६० पानः स ४३५; ५२०; भवि)। सुपा १५०; औपः उवा; हे ४,२११) । देखो वमाल पुं[पुञ्ज] राशि, ढग (सण)। वयणिज ।। वरिपण न 1ि2 केदारवाला देश। २ वमालण नपुञ्जन १ इकट्ठा करना। २ वय सक विदा बोलना, कहना। वह तटवाला देश (भग ५, ७-पत्र २३८) विस्तार । ३ वि. इकट्ठा करनेवाला। ४ वयसि (कसः कप्प), वइजा, वएजा (कप्प)। विस्तारनेवाला (कुमा)। वप्पी देखो वप्पा = वप्र (भग १५-पत्र भूका. वयासि, वयासी (प्रौपः कप्पा भगः वम्म पुंन [वर्मन] कवच, संनाह, बस्तर महा)। वकृ. वयंत, वयमाण, वएमाण वप्पीअ ([दे] चातक पक्षी (दे ७, ३३) । (प्रातः कुमा) (कप्पः काल ठा ४,४-पत्र २७४० सम्म वप्पीडिअन [दे] क्षेत्र, खेत (दे ७, ४८) ।। वम्म देखो वम । ६६ ठा ७)। संकृ. वइत्ता (आचा)। वम्मथ । [मन्मथ] कामदेव, कंद वप्पीह पुं [दे] स्तूप, मिट्टी आदि का कूट हेकृ. वइत्तए (कप्प) - वम्मह (चंड प्राप्रः हे १, २४२, २, (दे ७, ४०) वय सक [व] जाना, गमन करना। ६१ पास) वप्पु देखो बउ = वपुस् (भग १५–पत्र | वयइ (सुर १, २४८)। वयउ (महा), वइज वम्मा देखो वामा (कप्प; पउम २०, ४६; ६६६) (गच्छ २, ६१)। कृ. वयंत (सुर ३, ३७) वप्पे प्र[दे] इन अर्थो का सूचक अव्यय-१ सुख २३, १; पत्र ११)। सुपा ४३२) । कृ. वइयव्व (राजा)। वम्मिअ वि [वर्मित] कवचित, संनाह-युक्त उपहास-युक्त उल्लापन । २ विस्मय, आश्चर्य (विपा १, २–पत्र २३)। वय पुं[वृक] पशु-विशेष, भेड़िया (पउम (संक्षि ४७) ।। वम्मिअ , पुं [वल्मीक] कीट-विशेष-कृत ११८, ७)। वफाउल देखो बफाउल (दे ६,६२ टी) वम्मीअ मिट्टी का स्तूप, ढूह या भीटा, | वय पुं [दे] गृध्र पक्षी (दे ७, २६; पात्र) । वफर न [दे] शस्त्र-विशेष (सुर १३, १५६) । दीमकों के रहने की बाँबी (सन २.१.२६ वय पु[वज १ संस्कार-करण । २ गमन वन्म देखो वह = वह IN हे १, १०१ षड् ; पात्र; स १२३, सुपा (श्रा २३)। कन्भ पुं[वभ्र] पशु-विशेष (स ४३७)- ३१७) ।। वय पुं[ब्रज] १ देश-विशेष (गा ११२) । वन्भय न [दे] कमलोदर, कमल का मध्य वम्मीइ पुं [वाल्मीकि] एक प्रसिद्ध ऋषि, २ गोकुल, दस हजार गौत्रों का समूह (णाया १,१ टी-पत्र ४३; श्रा २३)। ३ मार्ग, रामायण-कर्ता मुनि (उत्तर १०३) भाग (दे ७, ३८) ।। वम्मीसर पु[दे] काम, कन्दर्प (दे ७, ४२) । रास्ता। ४ संस्कार-करण । ५ गमन, गति यभिचरिअ वि [व्यभिचरित] व्यभिचार दोष से दूषित (श्रा १४) । (श्रा २३)। ६ समूह, यूथ (श्रा २३ स वह न [६] वल्मीक (दे ७, ३१) । वम्ह पुं [ब्रह्मन्] १ वृक्ष-विशेष, पलाश का वभिचार देखो वहिचार (स ७११) २६७ सुपा २८८ ती ३) वभिचारि वि [व्यभिचारिन्] १ न्यायपेड़; 'नग्गोहवम्हा तरू' (पउम ५३, ७६) । वय पुं [व्यय] १ खर्च (स ५०३) । २ हानि, नुकसान (उव; प्रासू १८१)। देखो शास्त्रोक्त दोष-विशेष से दूषित, ऐकान्तिक २ देखो बंभ (प्राप्र)। वम्हल न [दे] केसर, किंजल्क (दे ७, ३३; विअ = व्यय । (धर्मसं १२२७ पंचा २, ३७)। २ परस्त्रीहे २, १७४) वय न [ वचस ] वचन, उक्ति (सूत्र १, लम्पट (वव ६७) वम्हाण देखो बंभण (कुमा)। १, २, २३; १, २, २, १३; सुपा १९४; वभियार देखो पहिचार (उवर ७६)। वय सक [वच् ] बोलना, कहना । वाइ, भास ६१; दं २२) समिअवि [ समित] बम सक [वम् ] उलटी करना, कै करना । वमए (षड्)। भवि. वच्छिहिइ, वच्छिइ, वचन का सयमी (भग)। वकृ. वमंत, वममाण (गउड; विपा १,७)। वच्छिहिति, वच्छिति, वोच्छिइ, वोच्छिहिइ, वय पुं [वद] कथन, उक्ति (श्रा २३)। संकृ. बंता (प्राचा: सूप १, ६, २६)। कृ. वोच्छिति, वोच्छिहिति, वोच्छ (संक्षि ३२ वय पुंन [व्रत नियम, धार्मिक प्रतिज्ञा (भग; वम्म (उर १, ७)। षड़ा हे ३, १७१, कुमा)। कर्म. वुचइ पंचा १०,८ कुमा; उप २११ टी; भोघभा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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