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________________ ( ६२ ) तुलना की सुविधा के लिए आवश्यकतानुरूप कहीं कहीं रेफरेंसवाले शब्द के 'प्र' के स्थान में 'य' और 'य' की जगह 'अ' किया गया है। ७. आर्ष ग्रन्थों में यश्रुतिवाले 'य' की (प्रतीत) की जगह 'अतीय' आादि । स्थान दिया गया है। ६. संयुक्त शब्दों को उनके क्रमिक स्थान में अलग न देकर मूल (पूर्व भागवाले) शब्द के भीतर ही उत्तर भागवाले शब्द अकारादि क्रम से काले टाइपों में दिए गए हैं और उसके पूर्व (ऊर्ध्वं बिन्दी ) का चिह्न दिया गया है। ऐसे शब्द का संस्कृत प्रतिशब्द भी काले टाइपों में चिह्न दे कर दिए गए हैं। विशेष स्थानों में पाठकों की सुगमता के लिए संयुक्त शब्द उसके क्रमिक स्थान में अलग भी बतलाये गए हैं श्रौर उसके अर्थ तथा रेफरेंस के लिए मूल शब्द में जहाँ वे दिए गए हैं, देखने की सूचना की गई है । तरह 'त' का प्रयोग भी बहुत ही पाया जाता है, जैसे 'भय' (प्रज) के स्थान में 'प्रत', 'आई' ऐसे शब्दों की भी इस कोष में बहुधा पुनरावृति न करके त-वर्जित शब्दों को ही विशेष रूप से (क) इन संयुक्त शब्दों में जहाँ 'देखो'- से जिस शब्द को देखने को कहा गया है वहाँ उस शब्द के उसी मूल शब्द के भीतर देखना चाहिए न कि अन्य शब्द के अन्दर । " त तर (स्व) था, दा (स), घर पर तराय (तर), प्रत्ययों को छोड़कर केवल मूल शब्द हो यहाँ लिए गए हैं। शब्द भी लिए गए हैं। भ्रम, सम (राम) परन्तु जहां ऐसे भीतर दिए गए हैं। ८. धातुषों के सब रूप सादे टाइपों में और कृदन्तों के रूप काले टाइपों में धातु के (क) भाव तथा कर्म-कर्तरि रूपों का निर्देश भी धातु के भीतर कर्म(ख) भूत कृदन्त के रूप तथा अन्य प्रख्यात तथा कृदन्त के विशिष्ट रूप बहुधा अलग अलग अपने क्रमिक स्थान हैं दिए गए हैं। ९. जिन संस्करणों से शब्द-संग्रह किया गया है उनमें रही हुई संपादन की या प्रेस की भूलों को सुधार कर शुद्ध शब्द ही यहाँ दिए गए. हैं। पाठकों के ज्ञानार्थं साधारण भूलों को छोड़कर विशेष भूलवाले पाठ रेफरेंस के उल्लेख के अनन्तर-पूर्व में ज्यों के त्यों उधृत भी किये गए हैं और भूलवाले भाग की शुद्धि कौन में '?' (शा) के बाद बतला दी गई है। जैसे देखी क्षोभ वन्भ आदि शब्द । Jain Education International आदि सुगम धीर सर्वसाधारण प्रत्ययवाले शब्दों में प्रत्ययों में रूप आदि की विशेषता है वहां प्रत्यय सहितः 9 से ही किया गया है। (क) जहाँ भिन्न भिन्न ग्रंथों में या एक ही ग्रंथ के भिन्न भिन्न स्थानों में या संस्करणों में एक ही शब्द के अनेक संदिग्ध रूप पाये गए हैं और जिनके शुद्ध रूप का निर्णय करना कठिन जान पड़ा है वहाँ पर ऐसे रूपवाले सब शब्द इस कोष में यथास्थान दिए गए हैं और तुलना के लिए ऐसे प्रत्येक शब्द के अन्त भाग में 'देखो' लिख कर इतर रूप भी सूचाया गया है; जैसे देखो 'पुक्खलच्छिभय, पोक्खलच्छिलय'; 'पेसल, पेसलेस, 'भयालि, सयालि' श्रादि शब्द । १०. एक ही ग्रंथ के एक या भिन्न भिन्न संस्करणों के अथवा भिन्न भिन्न ग्रंथों के पाठ भेदों के सभी शुद्ध शब्द इस कोष में यथास्थान दिए गए हैं। जैसे— परिक्कुसियती २५ पत्र १२३ ) और परिसिव (भग २५ - पत्र १२५ ) विदेश (भी, मा. का – टीसूत्रकृतांग १, २, ३, १२) और निव्विदेज्ज (प्रा. स. का सूत्रकृतांग १, २, ३, १२) पविरल्लिय (प्रा. स. का प्रश्नव्याकरण १, ५-पत्र ११) और पत्थिरित (अभियनराजेन्द्र का प्रश्नव्याकरण १ ५) सामको प्रवचनसारोद्धार, द्वार ७ ) प्रभृति । (समवायांग-पुत्र, पत्र १५३) धीर सामिकुड ११. संस्कृत की तरह प्राकृत में भी कम से कम शब्द के आदि के 'ब' तथा 'व' के विषय में गहरा मतभेद है। एक की शब्द कहीं बकारादि पाया जाता है तो कहीं वकारादि। जैसे भगवतीसूत्र में 'बस्थि' हैं तो विपाकश्रुत में 'वस्थि' छपा है। इससे ऐसे शब्दों को दोनों स्थानों में न देकर जो 'ब' या 'व' उचित जान पड़ा है उसी एक स्थल में वह शब्द दिया गया है और उभय प्रकार के शब्दों के रेफरेंस भी वहाँ ही दिये गये हैं। हाँ, जहाँ दोनों अक्षरों के अस्तित्व का स्पष्ट रूप से उल्लेख पाया गया है वहाँ दोनों स्थलों में वह शब्द दिया गया है, जैसे 'बप्फाउल' भौर 'वप्फाउल " प्रादि । १२. लिङ्गादि बोधक संक्षिप्त शब्द प्राकृत शब्द से ही संबन्ध रखते हैं, संस्कृत- प्रतिशब्द से नहीं । (क) जहाँ अर्थ-भेद में लिङ्ग प्रादि का भी भेद है वहाँ उस अर्थ के पूर्व में ही भिन्न लिंग आदि का सूचक शब्द दे दिया गया है । जहाँ ऐसा भिन्न शब्द नहीं दिया है वहाँ उसके पूर्व के अर्थ या अर्थी के समान ही लिंग आदि समझना चाहिए। १. देशीनाममाला ६, ६२ का टीका । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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