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________________ यात के स्वर की साधनाथ सन्धि नहीं होती है, हाता है; यथा-वग्गेवि प्रवयासोटा ( ५२ ) २. एक पद में स्वरों की सन्धि नहीं होती है; जैसे-पाद - पान, गति = गइ, नगर = णभर । ३. इ, ई, और ऊ की, असमान स्वर पर रहने पर, सन्धि नहीं होती है; यथा-वग्गेवि प्रवयासो, दणुईदो। ४. ए और प्रो की परवर्ती स्वर के साथ सन्धि नहीं होती है; यथा-फले प्राबंधो, मालक्खिमो एरिह । ५. आख्यात के स्वर की सन्धि नहीं होती है। जैसे-होइ इह । नाम-विभक्ति १. अकारान्त पुंलिंग शब्द के एकवचन में प्रो होता है। जैसे--जिनः = जियो, वृक्षः = वच्छो । २. पश्चमी के एकवचन में तो, ओ, उ, हि और लोप होता है और तो-भिन्न अन्य प्रत्ययों के प्रसंग में अकार का आकार होता है; जैसे-जिनात् = जिणात्तो, जिणाप्रो जिणाउ, जिणाहि, जिणा । ३. पञ्चमी के बहुवचन का प्रत्यय तो, मो, उ और हि होता है, एवं तो से अन्य प्रत्यय में पूर्व के मका मा होता है, हि के प्रसंग में ए भी होता है, यथा-जिणत्तो, जिणायो, जिणाउ, जिणाहि, जिणेहि । ४. पञ्चमी के एकवचन के प्रत्यय के स्थान में हितो और बहुवचन के प्रत्यय के स्थान में हिंतो और सुतो इन स्वतन्त्र शब्दों का भी प्रयोग होता है, यथा-जिनात् = जिणा हितों; जिनेभ्यः = जिणा हिन्तो, जिणे हिन्तो, जिणा सुतो, जिणे सुतो। ५. षष्टो के एकवचन का प्रत्यय स्स होता है, यथा-जिणस्स, मुरिणस्स, तरुस्स। अस्मत् शब्द के प्रथमा के एकवचन के रूप म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अहं और मयं होता है। अस्मत् शब्द के प्रथमा के बहुवचन के रूप प्रम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और भे होता है। अस्मत् शब्द के षष्ठी का बहुवचन णे, णो, मज्झ, प्रम्ह, अम्ह, अम्हे, प्रम्हो, भम्हाण, ममाण महाण और मज्झाण होता है। युष्मत् शब्द के षष्ठी का एकवचन तइ, तु, ते, तुम्ह, तुह, तुह, तुव, तुम, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुम, तुम्ह, तुज्झ उन्भ, उम्ह, उज्झ और उय्ह होता है। लिङ्ग-व्यत्यय १. संस्कृत में जो शब्द केवल पुंलिंग है, उनमें से कई एक महराष्ट्री में स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग भी है, यथा-प्रश्नः = पएहो, पाहा: गुणाः = गुणा, गुणाई देवा = देवा, देवाणि । अनेक जगह स्त्रीलिंग के स्थान में पुलिग होता है, यथा-शरत् = सरसो, प्रावूट = पाउसो, विद्युता = विज्जुणा । ३. संस्कृत के अनेक क्लीबलिंग शब्दों का प्रयोग महाराष्ट्ठी में पुंलिंग और स्त्रीलिंग में भी होता है; यथा-यशः = जसो, जन्म = जम्मो, प्रक्षि-मच्छी, पृष्ठम् = पिट्ठी, चौर्यम् = चोरिमा। स्थान में हितो और सही जिनेभ्यः = जिणा । प्रत्यय स्स होता है. आख्यात १. ति और ते प्रत्ययों के त का लोप होता है, जैसे-हसति = हसइ, हसए; रमते = रमद, रमए । २. परस्मैपद और आत्मनेपद का विभाग नहीं है, महाराष्ट्रा में सभी धातु उभयपदी की तरह हैं। ३. भूतकाल के ह्यस्तन, अद्यतन और परोक्ष विभाग न होकर एक ही तरह के रूप होते हैं और भूतकाल में आख्यात की जगह त-प्रययान्त कृदन्त का ही प्रयोग अधिक होता है। ४. भविष्यत्-काल के भी संस्कृत का तरह श्वस्तन और भविष्यत् ऐसे दो विभाग नहीं है। ५. भविष्यकाल के प्रत्ययों के पहले हि होता है, यथा-हसिष्यति = हसिहिद, करिष्यति, = करिहिइ । ६. वर्तमान काल के, भविष्यकाल के और विधि-लिंग और आज्ञार्थक प्रत्ययों के स्थान में ज्ज और ज्जा होता है, यथा हससि, हसिष्यति, हसेत्, हसतु = हसेज्ज, हसेज्जा। ७. भाव और कर्म में ईम और इज प्रत्यय होते हैं, यथा-हस्यते % हसीमइ, हसिबइ । कृदन्त १. शीलाद्यर्थक तु-प्रत्यय के स्थान में इर होता है, यथा-गन्तु = गमिर, नमनशील = एमिर । २. स्वा-प्रत्यय के स्थान में तुम् , म, तूण, तुपाण और ता होता है, जैसे-पठित्वा-पठिउँ, पढिम, पढिऊण, पढिउमाण, पढित्ता । तद्धित १. स्व-प्रत्यय के स्थान में त और तण होता है, यथा-देवत्व - देवत्त, देवत्तण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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