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________________ ( ४८ ) (९) महाराष्ट्री प्राकृत काव्य और गीति की भाषा महाराष्ट्री कही जाती है। सेतुबन्ध, गाथासप्तशती, गउडवहो, कुमारपालचरितः प्रभृति ग्रन्थों में इस भाषा के निदर्शन पाये जाते हैं । गाथा (गीति - साहित्य) में महाराष्ट्री प्राकृत ने इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की थी कि बाद के नाटकों में गद्य में सौरसेनी बोलनेवाले पात्रों के लिए संगीत या पद्य में महाराष्ट्री भाषा का व्यवहार करने का रिवाज सा बन गया था । यही कारण है कि कालिदास से लेकर उसके बाद के. सभी नाटकों में पद्य में प्रायः महाराष्ट्री भाषा का ही व्यवहार देखा जाता है। निदर्शन चंड ने अपने प्राकृतलक्षण में 'महाराष्ट्री' इस नाम का उल्लेख और इसके विशेष लक्षण न देकर भी आर्ष- प्राकृतः अथवा अर्धमागधी के और जैन महाराष्ट्री के लक्षणों के साथ साधारण भाव से इसके लक्षण दिए हैं। वररुचि ने अपने प्राकृत-व्याकरण में इस भाषा के "महाराष्ट्री' नाम का उल्लेख किया है और इसके विशेष लक्षण और उदाहरण दिए हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में 'महाराष्ट्री' नाम का निर्देश न कर 'प्राकृत' इस साधारण नाम से महाराष्ट्री के ही लक्षण और उदाहरण बताए हैं । क्रमदीश्वर का संक्षिप्तसार, त्रिविक्रम की प्राकृतव्याकरणसूत्रवृत्ति, लक्ष्मीधर की षड्भाषाचन्द्रिका और मार्कण्डेय का प्राकृतसर्वस्व प्रभृति प्राकृत व्याकरणों में इस भाषा के लक्षण और उदाहरण पा जाते हैं । चंड-भिन्न सभी प्राकृत वैयाकरणों ने महाराष्ट्री का मुख्य रूप से विवरण दिया है और सौरसेनी, मागधी प्रभृति भाषाओं के महाराष्ट्री के साथ जो भेद हैं वे ही बतलाए हैं। संस्कृत के अलंकार-शास्त्रों में भी भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाओं का उल्लेख मिलता है । भरत के नाट्य-शास्त्र में 'दाक्षिणात्या' भाषा का निर्देश है, किन्तु इसके विशेष लक्षण नहीं दिए गए हैं। संभवतः वह महाराष्ट्री भाषा ही हो सकती है, क्योंकि भरत ने महाराष्ट्री का अलग उल्लेख नहीं किया है । परन्तु मार्कण्डेय के प्राकृतसर्वस्व में उद्धृत प्राकृतचन्द्रिका के वचन में और प्राकृतसर्वस्व के खुद मार्कण्डेय के वचन में महाराष्ट्री और दाक्षिणात्या का भिन्न भिन्न भाषा के रूप में उल्लेख किया गया है । दण्डी के काव्यादर्श के 'महाराष्ट्राश्रयों भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥” (१, ३४) । इस श्लोक में महाराष्ट्री भाषा का और उसकी उत्कृष्टता का स्पष्ट उल्लेख है । दण्डी के समय में महाराष्ट्री प्राकृत का इतना उत्कर्ष हुआ था कि इसके परवर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने केवल इस महाराष्ट्री के ही अर्थ में उस प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है जो सामान्यतः सर्व प्रादेशिक भाषाओं का वाचक है। रुद्रट का काव्यालंकार, वाग्भटालंकार, पाइअलच्छीनाममाला, हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण प्रभृति ग्रन्थों में महाराष्ट्री के ही अर्थ में प्राकृत शब्द व्यवहृत हुआ है । अलंकार-शास्त्र-भिन्न पाइअलच्छीनाममाला और देशीनाममाला इन कोष-प्रन्थों में भी महाराष्ट्री के उदाहरण हैं। डॉ. हॉर्नलि के मत में महाराष्ट्री भाषा महाराष्ट्र देश में उत्पन्न नहीं हुई है । वे मानते हैं कि महाराष्ट्री का अर्थ 'विशाल राष्ट्र की भाषा' है और राजपूताना तथा मध्यदेश प्रभृति इसी विशाल राष्ट्र के अन्तर्गत हैं, इसी से 'महाराष्ट्री' मुख्य प्राकृत कही गई है । किन्तु दण्डी ने इस भाषा को महाराष्ट्र देश की ही भाषा ही है। उत्पत्ति स्थान प्रियर्सन के मत में महाराष्ट्री प्राकृत से ही आधुनिक मराठी भाषा उत्पन्न हुई है। इससे महाराष्ट्री प्राकृत का उत्पत्तिस्थान महाराष्ट्र देश ही है यह बात निःसन्देह कही जा सकती है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में महाराष्ट्र को ही 'प्राकृत' नाम दिया है और इसकी प्रकृति संस्कृत कही है। इसी तरह चण्ड, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने साधारण रूप से सभी प्राकृत भाषाओं का मूल (प्रकृति) संस्कृत बताया है। किन्तु हम यह पहले ही अच्छी तरह प्रमाणित कर आए हैं कि कोई भी प्राकृत भाषा संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई है, बल्कि वैदिक काल में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रचलित आर्यों की कथ्य भाषाओं प्रकृति १. " शेषं महाराष्ट्रीवत् ” ( प्राकृतप्रकाश १२, ३२) । २. "महाराष्ट्री तथावन्ती सौरसेन्यधंसागधी । वाह्रीकी मागधी प्राच्यत्यष्टौ ता दाक्षिणात्यया ।।" (प्रा० सं० पृष्ठ २) । ३. देखो प्राकृतसर्वस्व, पृष्ठ २ और १०४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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