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________________ पाइअसद्दमहण्णवो झणझणिय-झाम झणझणिय देखो झणज्झणिअ (सुपा ५०)। झलहलिय वि [दे] क्षुब्ध, विचलितः 'घर- झाइ वि [ध्यायिन] चिन्तन करनेवाला, झणि देखो झुणि (रंभा) हरियधरं झलहलियसायरं चलियसयलकुलसेल' | ध्यान करनेवाला (आचा)। झत्ति देखो झडत्ति (हे १,४२, षड्; महा । (कुलक ३३)। भाइअ वि [ध्यात] चिन्तित (सिरि १२५५)। सुर २, ६)। झला स्त्री [दे] मृगतृष्णा, धूप में जल-ज्ञान, झाउ वि [ध्यात ध्यान करनेवाला, चिन्तक झत्थ वि [दे] गत, गया हुआ। २ नष्ट (दे | व्यर्थ तृष्णा (दे ३, ५३; पात्र)। (प्राद ४)। भलुंकिअ) वि [दे] दग्ध, जला हुपा (दे| झपिअ वि [दे] पर्यस्त, उत्क्षिप्त ( षड्) झाड न [दे. भाट] १ लता-गहन, निकुञ्ज, झलुंसिअ ३, ५६) । झाड़ी (दे ३, ५७, ७, ८४ पान; सुर ७, झप्प देखो झण। झप्पइ (षड् )। झल्लरी स्त्री [झल्लरी] वलयाकार वाद्य-विशेष, हुडग बाजा, झाल, झालर (ठा १०; औपः सुर २४३) । २ वृक्ष, पेड़; 'पापल्ली झाडभेअम्मि' झमाल न [दे] इन्द्रजाल, माया-जाल (दे ३, ३, ६६, सुपा ५०; कप्प) (दे १, ६१); "दिवो य तए पोमाडज्झाडयस्स भय पुंस्त्री [ध्वज ध्वज, पताका (हे २, २७ इमम्मि पएसे विरिणग्गयो पायो (स १४४)। झल्लरी स्त्री [दे] अजा, बकरी (चंड)। औप) । स्त्री. या (औप)। झाड न [झाटन] १ झोष, क्षय, क्षीणता। झल्लोझल्लिअ वि[दे] संपूर्ण, परिपूर्ण, भरपूर (भवि)। २ प्रस्फोटन, झाड़ना (राज) झर प्रक [क्षर ] झरना, टपकना, चूना, झवणा स्त्री [क्षपणा] १ नाश, विनाश (विसे | झाडल न [दे] कसि-फल, डोडों, कपास (दे गिरना । झरइ (हे ४, १७३) । वकृ. झरंत ६६१) । २ अध्ययन, पठन (विसे (५८) ३,५७) । (कुमाः सुर ३, १०)। झस पु [झष १ एक देवविमान (देवेन्द्र झाडावण स्त्रीन [भाटन] झड़वाना, सफा भर सक [स्मृ] याद करना । झरइ (हे ४, कराना, मार्जन कराना । स्त्री. णी (सुपा १४०)। २ एक नरक-स्थान (देवेन्द्र ११) ७४; षड्)। कृ. झरेयव्य (बृह ५)। ३७३) । भस पुझिष] १ मत्स्य, मछली (परह १, झरंक पुं[दे] तृण का बनाया हुआ झाण वि ध्यान] ध्यानकर्ता (श्रु १२८)। १)। २ °चिधय पुं [चिह्नक] कामदेव, झरत । पुरुष, चश्चा (दे ३, ५५)। | भाण- पुंन [ध्यान] १ चिन्ता, विचार, स्मर (कुमा)। झरग वि [स्मारक चिन्तन करनेवाला, ध्यान उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण, सोच (पाव ४; ठा झस पुंदे] १ अयश, अपकीति । २ तट, करनेवाला; 'भणगं करगं झरगं पभावगं ४, १, हे २, २६)। २ एक ही वस्तु में किनारा । ३ वि. तटस्थ, मध्यस्थ । ४ दीर्घपाएदसणगुणाणं (मंदि)। मन को स्थिरता, लौ लगाना (ठा ४,१)। गंभीर, लम्बा और गंभीर, बहुत गहरा (दे ३ मन आदि की चेन का निरोध । ४ दृढ़ भरभर पुं झरझर निझर या झरना ३,६०)। ५ टंक से छिन्न (दे ३,६०० प्रादि का ‘झर-झर' आवाज (सुर ३, १०)। प्रयत्न से मन वगैरह का व्यापार (विसे ३०७१, ठा ४, १)। भरण न [क्षरण] झरना, टपकना, पतन झसय पुं[झषक छोटा मत्स्य (दे २,५७) । (वव १)। भाणंतरिया स्त्री [ध्यानान्तरिका] १ दो झसर पुन [द] शस्त्र-विशेष, प्रायुध-विशेष; | झरणा स्त्री [क्षरणा] ऊपर देखो (आवम)। ध्यानों का मध्य भाग, वह समय जिसमें ‘सरझसरसत्तिसब्बल-' (पउम ८, ६५)। प्रथम ध्यान की समाप्ति हुई हो और दूसरे भर पुं[A] सुवर्णकार, सोनार (दे ३,५४)। झसिअ वि[दे] १ पर्यस्त, उत्क्षिप्त । २ का प्रारम्भ जबतक न किया गया हो और झरिय वि [क्षरित] टपका हुआ, गिरा हुआ, | प्राकष्ट, जिसपर आक्रोश किया गया हो वह अन्य अनेक ध्यान करने के बाकी हो (ठा, पतित (उवः प्रोघ ७६०)। (दे ३, ६२) भग, ५, ४)। २ एक ध्यान समाप्त होने पर झरुअ [दे] मशक, मच्छड़ (दे ३, ५४) Mझसिंध ( [झपचिह्न काम, स्मर (कुमा) शेष ध्यानों में किसी एक को प्रथम प्रारंभ झलकिअ वि [दग्ध] जला हुआ, भस्मीभूत; | झसुर न [दे] १ ताम्बूल, पान (दे ३, ६१; करने का विमश (बृह १) 'जयगुरुगुरुविरहानलजालोलिझलकियं हिययं' गउड) । २ अर्थ (दे ३, ६१)। झाणि वि [ध्यानिन्] ध्यान करनेवाला (सुपा ६५७; हे ४, ३६५) । झा सक [ध्यै चिन्ता करना, ध्यान करना। _(मारा ८६)। झलझल अक [जाज्वल ] झलकना, चम झाइ, झाइ (हे ४, ६)। वकृ झायंत, माम सक [दह ] जलाना, दाह देना, दग्ध कना, दीपना । वकृ. झलझलंत (भवि)। भायमाण (प्रारू; महा)। संकृ. भाऊणं करना । झामेइ (सूम २, २, ४४)। वकृ. झलझलिआ स्त्री [दे] झोली, कोथली, थैली (पारा ११२) । हेकृ. झाइत्तए (कस)। कृ. झामंत (सूम २, २, ४४) । झायव्य, झेय, भाइयव्व, भाएयव्य | माम वि [दे] दग्ध, जला हुआ (आचा २, भलहल देखो झलझल। महहलह (सुपा (कुमाः पारा ७८ प्राव ४. ति १० सुर १,१)। "थंडिल न [स्थण्डिल] दग्ध १८६) । वकृ. झलहलंत (श्रा २८)। १४, ८४)। भूमि (प्राचा २, १, १) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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