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________________ ( ३२ ) (३) चूलिकापैशाची चलिकापैशाची भाषा के लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में और पंडित लक्ष्मीधर ने अपनी षडभाषाचन्द्रिका में दिए हैं। आचार्य हेमचन्द्र के कुमारपालचरित और काव्यानुशासन में इस भाषा निदर्शन के निदर्शन पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त हम्मीरमदमर्दन नामक नाटक में और दो-एक छोटे-छोटे षड भाषास्तोत्रों में भी इसके कुछ नमूने देखने में आते हैं। प्राकृतलक्षण, प्राकृतप्रकाश, संक्षिप्तसार और प्राकृतसर्वस्व वगैरह प्राकृत व्याकरणों में और संस्कृत के अलंकार अन्थों में चूलिकापैशाची का कोई उल्लेख नहीं है: अथ च आचार्य हेमचन्द्र ने और पं. लक्ष्मीधर ने चूलिकापैशाची के जो लक्षण दिए हैं वे चंड, वररुचि, क्रमदीश्वर और मार्कण्डेय-प्रभृति वैयाकरणों ने पैशाची भाषा के लक्षणों में ही अन्तर्गत किए हैं। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि उक्त वैयाकरण-गण चूलिकापैशाची को पैशाची भाषा के अन्तत पैशाची में इसका ही मानते थे. स्वतन्त्र भाषा के रूप में नहीं। आचार्य हेमचन्द्र भी अपने अभिधानचिन्तामणि नामक अन्तर्भाव संस्कृत कोष ग्रन्थ के "भाषाः षट् संस्कृतादिकाः (काएड २,१९६) इस वचन की "संस्कृत-प्राकृत-मागधी-शौरसेनी पैशाच्यपभ्रंशलक्षणाः' यह व्याख्या करते हुए चूलिकापैशाची का अलग उल्लेख नहीं करते। इससे मालूम पड़ता है कि वे भी चूलिकापैशाची को पैशाची का ही एक भेद मानते हैं। हमारा भी यही मत है। इससे यहाँ पर इस विषय में पैशाची भाषा के अनन्तरोक्त विवरण से कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं रहती। सिर्फ आचार्य हेमचन्द्र ने और उन्हीं का पूरा अनुसरण कर पं० लक्ष्मीधर ने इस भाषा के जो लक्षण दिए हैं वे नीचे उद्धृत किए जाते हैं। इनके सिवा सभी अंशों में इस भाषा का पैशाची से कोई पार्थक्य नहीं है। लक्षण १. वर्ग के तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के स्थान में क्रमशः प्रथम और द्वितीय होता है'; यथा-नगर = नकर, व्याघ्र वक्ख, राजाराचा, निभेर-निच्छर, तडाग = तटाक, ढका%Dठका, मदन% मतन, मधुर-मथुर, बालक = पालक, भगवती = फकवती। २. र के स्थान में वैकल्पिक ल होता है; यथा-रुद्र = लुद्द, रुद्द । (४) अर्धमागधी भगवान महावीर अपना धर्मोपदेश अर्धमागधी भाषा में देते थे। इसी उपदेश के अनुसार उनके समसामयिक गणधर श्री सुधर्मस्वामी ने अर्धमागधी भाषा में ही आचाराङ्ग-प्रभृति सत्र-ग्रन्थों की रचना की थी। ये ग्रन्थ उस समय लिखे नहीं गए थे, परन्तु शिष्य परम्परा से कण्ठ-पाठ द्वारा संरक्षित होते थे। दिगम्बर जैनों के मत से ये समस्त ग्रन्थ विलुप्त प्राचीन जैन सूत्रों की हो गए है, पर हो गए हैं, परन्तु श्वेताम्बर जैन दिगम्बरों के इस मन्तव्य से सहमत नहीं हैं। श्वेताम्बरों के मत के भाषा प्रर्धमागधी ___ अनुसार ये सूत्र-ग्रन्थ महावीर-निर्वाण के बाद ९८० अर्थात् ख्रिस्ताब्द ४५४ में बलभी (वर्तमान वळा, काठियावाड़) में श्रादेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने वर्तमान आकार में लिपिबद्ध किए। उस समय लिखे जाने पर भी इन ग्रन्थों की भाषा प्राचान है। इसका एक कारण यह है कि जैसे ब्राह्मणों ने कण्ठ-पाठ-द्वारा बहु-शताब्दीपर्यन्त वेदों की रक्षा की थी वैसे ही जैन मुनियों ने भी अपनी शिष्य-परम्परा से मुख-पाठ द्वारा करीब एक हजार वर्ष तक अपने इन पवित्र ग्रन्थों को याद रखा था। दूसरा यह है कि जैन धर्म में सूत्र-पाठों के शुद्ध उच्चारण के लिए खूब जोर दिया गया है, यहाँ तक कि मात्रा या अक्षर के भी अशुद्ध या विपरीत उच्चारण करने में दोष माना गया है। तिस पर भी सूत्रग्रन्थों की भाषा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से इस बात को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भगवान महावीर के समय की अर्ध १. अन्य वैयाकरणों के मत से यह नियम शब्द के आदि के अक्षरों में लागू नहीं होता है (हे० प्रा०४, ३२७)। २. "भगवं च णं भद्धमाहीए भासाए धम्ममाइक्खई" (समवायाङ्ग सूत्र, पत्र ६०)। "तए णं समणे भगवं महाबीरे कूरिणप्रस्स रएणो भिभिसारपूत्तस्स...."मद्धमागहाए भासाए भासाइ।..."'सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि मारियमणारियाणं प्रप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमई" (प्रौपपातिक सूत्र)। ३. "मत्थं भासइ परिहा, सुत्तं गर्थति गणहरा निउणं" (अावश्यकनिपुंक्ति)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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