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________________ ( २० ) द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं का इतिहास प्रस्तुत कोष में द्वितीय स्तर की साहित्यिक प्राकृत भाषाओं के शब्दों को ही स्थान दिया गया है । इससे इन भाषाओं की उत्पत्ति और परिणति के सम्बन्ध में यहाँ पर कुछ विस्तार से विवेचन करना आवश्यक है । साधारणतः लोगों की यही धारणा है कि संस्कृत भाषा से ही द्वितीय स्तर की समस्त प्राकृत भाषाएँ और आधुनिक भारतीय भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। कई प्राकृत वैयाकरणों ने भी अपने प्राकृत व्याकरणों में इसी मत का समर्थन किया है । परन्तु यह मत कहाँ तक सत्य है, इसका विचार करने के पहले इन भाषाओं के भेदों को जानने की जरूरत है । प्राकृत का संस्कृत-सापेक्ष प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृत भाषाओं के शब्द, संस्कृत शब्दों के सादृश्य और पार्थक्य के अनुसार इन तीन भागों में विभक्त किए हैं: - (१) तत्सम, (२) तद्भव और (३) देश्य या देशी । विभाग (१) जो शब्द संस्कृत और प्राकृत में बिलकुल एक रूप हैं उनको 'तत्सम' या 'संस्कृतसम' कहते हैं, जैसे - प्रजलि, भांगम, इच्छा, ईहा, उत्तम, ऊढा, एरंड, श्रोङ्कार, किङ्कर, खज, गण, घण्टा, चित्त, छल, जल, झङ्कार, टङ्कार, डिम्भ, ढक्का, तिमिर, दल, घवल, नोर, परिमल, फल, बहु, भार, मरण, रस, लव, वारि, सुन्दर, हरि, गच्छन्ति, हरन्ति प्रभृति । (२) जो शब्द संस्कृत से वर्ण-लोप, वर्णागम अथवा वर्ण-परिवर्तन के द्वारा उत्पन्न हुए हैं वे 'तद्भव' अथवा 'संस्कृतभव' कहलाते हैं, जैसे:- भग्र = श्रग्ग, प्रायं = प्रारित्र, इष्ट = इट्ठ, ईर्ष्या = ईसा, उद्गम = उगम, कृष्ण = कसण, खर्जूर = खज्जूर, गज = गन, घमं= धम्म चक्र = चक्क, क्षोभ = छोह, यक्ष = जक्ख, ध्यान = भाण, दंश = डंस, नाथ = शाह, त्रिदश = तिवस, दृष्ट = दिट्ठ, धार्मिक = घम्मिश्र, पश्चात् = पच्छा, स्पर्शं फंस, बदर = बोर, भार्या = भारिश्रा, मेघ = मेह, अरण्य = रराण, लेश = लेस, शेष = सेस, हृदय = हिश्रम, भवति = हवइ, पिबति = पिश्रइ, पृच्छति = पुच्छइ, प्रकार्षीत् = प्रकासी, भविष्यति - होहि इत्यादि । (३) जिन शब्दों का संस्कृत के साथ कुछ भी मादृश्य नहीं है-कोई भी सम्बन्ध नहीं है, उनको 'देश्य' या 'देशी' बोला जाता है; यथा - अगय (दैत्य), श्राकासिय ( पर्याप्त), इराव ( हस्ती ), ईस (कीलक), उन्नचित्त ( श्रपगत), ऊसन (उपधान), एलविल ( धनाढ्य, वृषभ), ओंडल (धम्मिल्ल), कंदोट्ट (कुमुद), खुड्डि (सुरत), गयसाउल (विरक्त), घढ ( स्तूप), चउक्कर (कार्तिकेय), छंकुई ( कपिकच्छू), जच्च (पुरुष), झडप्प (शीघ्र ), टंका (जङ्घा), डाल (शाखा), ढंढर (पिशाच, ईर्ष्या), णित्तिरडि (त्रुटित ), तोमरी (लता), थमिश्र ( विस्मृत), दाणि (शुल्क), धरण (गृह), निक्खुत्त (निश्चित), परिणश्रा (करोटिका), फुटा (केश-बन्ध), बिट्ट (पुत्र), भुंड (सूकर), मड्डा (बलात्कार), रत्ति (भाज्ञा), लंच (कुक्कुट), विच्छड (समूह), सयराह (शीघ्र ), हुत्त ( श्रभिमुख ), उन ( पश्य), खुप्पइ (निमज्जति), छिवइ ( स्पृशति ), देखाइ, निश्रच्छ (पश्यति), चुक्कर (भ्रश्यति), चोप्पड ( क्षति), अहिपच्चु (गृह्णाति) प्रभृति । उपर्युक्त विभाग प्राकृत के साथ संस्कृत के सादृश्य और पार्थक्य के ऊपर निर्भर करता है। इसके सिवा संस्कृत और प्राकृत के प्राचीन ग्रन्थकारों ने प्राकृत भाषाओं का और एक विभाग किया है जो प्राकृत भाषाओं के उत्पत्ति-स्थानों से संबन्ध रखता है । यह भौगोलिक विभाग (Geographical Classification) कहा जा सकता । भरतप्रणीत कहे जाते नाट्य-शास्त्र में, 'सात भाषाओं को जो मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, वाहीका और दाक्षिणात्या ये नाम हैं, चण्ड के प्राकृत व्याकरण में जो पैशाचिकी और मागधिका ये नाम मिलते हैं, दण्डी ने काव्यादर्श में जो महाराष्ट्राश्रया, शौरसेनीं, गौडी और लाटी ये नाम दिए हैं, आचार्य हेमचन्द्र आदि ने मागधा, शौरसेनी, पैशाची और चूलिकापैशाचिक कह कर जिन नामों का निर्देश प्राकृत भाषाओं का भौगोलिक विभाग १. " मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वाह्वोका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ।।" ( नाव्यशास्त्र १७, ४८ ) । २. "पैशाचिक्यां रणयोर्लनौ' (प्राकृतलक्षरण ३, ३८ ) । ३. "मागधिकायां रसयोलंशौ' (प्राकृतलक्षरण ३, ३९ ) । ४. महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥ शौरसेनी च गौडी च लाटी चान्या च तादृशी । याति प्रकृतमित्येवं व्यवहारेषु सन्निधिम् ||" ( काव्यादर्श १, ३४ : ३५ ) : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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