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________________ 9 ( १४ ) केवल आधुनिक गुजराती ग्रन्थों के संस्कृत और गुजराती शब्दों पर से कोरी निजी कल्पना से ही बनाये हुए प्राकृत शब्दों की इसमें खूब मिलावट की गई है, जिससे इस कोष की प्रामाणिकता ही एकदम नष्ट हो गई है । ये और अन्य अनेक अक्षम्य दोषों के कारण साधारण अभ्यासी के लिए इस कोष का उपयोग जितना भ्रामक और भयंकर है, विद्वानों के लिए भी उतना ही क्लेशकर है। इस तरह प्राकृत के विविध भेदों और विषयों के जैन तथा जैनेतर साहित्य के यथेष्ट शब्दों से संकलित, भावश्यक अवतरणों से युक्त, शुद्ध एवं प्रामाणिक कोष का नितान्त प्रभाव बना ही रहा। इस प्रभाव की पूर्ति के लिये मैंने अपने उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने का दृढ़ संकल्प किया और तदनुसार शीघ्र हो प्रयत्न भी शुरू कर दिया गया, जिसका फल प्रस्तुत कोष के रूप में चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात् श्राज पाठकों के सामने उपस्थित है । " प्रस्तुत कोष की तय्यारी में जो श्रनेक कठिनाइयाँ मुझे झेलनी पड़ी हैं उनमें सर्व प्रथम प्राकृत के शुद्ध पुस्तकों के विषय में थी । प्राकृत का विशाल साहित्य भण्डार विविध विषयक ग्रंथ रत्नों से पूर्ण होने पर भी आजतक वह यथेट रूप में प्रकाशित ही नहीं हुआ है । और हस्त लिखित पुस्तकें तो बहुधा अज्ञान लेखकों के हाथ से लिखी जानेके कारण प्रायः श्रशुद्ध ही हुआ करती हैं; परन्तु प्राजतक जो प्राकृत की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं वे भी, न्यूनाधिक परिमाण में अशुद्धियों से खाली नहीं हैं। अलबत, यूरोप की और इस देश की कुछ पुस्तकें ऐसी उत्तम पद्धति से छपी हुई हैं कि जिनमें अशुद्धियाँ बहुत ही कम हैं, और जो कुछ रह भी गई हैं वे उनमें टिप्पणी में दिए हुए अन्य प्रतियों के पाठान्तरों से सुधारी जा सकती हैं। परन्तु दुर्भाग्य से ऐसे संस्करणों की संख्या बहुत ही अल्प- नगण्य हैं। सचमुच, यह बड़े खेद की बात है कि भारतीय और खास कर हमारे जैन विद्वान प्राचीन पुस्तकों के संशोधन में अधिक हस्तलिखित पुस्तकों का उपयोग करने की और उनके भिन्न-भिन्न पाठों को टिप्पणी के आकार में उद्धृत करने की तकलीफ ही नहीं उठाते। इसका नतीजा यह होता है कि संशोधक की बुद्धि में जो पाठ शुद्ध मालूम होता है वही एक, फिर चाहे वह वास्तव में अशुद्ध ही क्यों न हो, पाठकों को देखने को मिलता है। प्राकृत के इतर मुद्रित ग्रन्थों की तो यह दुर्दशा है ही, परन्तु जैनों के पवित्रतम और अति प्राचीन धागम-ग्रन्थों की भी यही अवस्था है। कई वर्षों के पहले मुर्शिदाबाद के प्रसिद्ध न-कुबेर राव धनपतिसिंहजी बहादुर ने अनेक धागम अन्य भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न संशोधों से संपादित करा कर पाये थे, जिनमें अधिकांश ज्ञानी संशोधकों से सम्पादित होने के कारण खूब हो शुद्ध थे आगमोदय समिति ने अच्छा फंड एकत्रित करके भी जो आगमों के ग्रन्थ छपवाये हैं वे में सुन्दर होने पर भी शुद्धता के विषय में बहुधा पूर्वोक्त संस्करणों की पुनरावृत्ति ही है का परिश्रम किया गया है, न मूल और टीका के प्राकृत शब्दों की संगति की ओर ध्यान दिया गया है, और न तो प्रथम संस्करण की साधारण शुद्धियां सुधारने की योति कोशिश ही की गई है। क्या ही छा हो यदि श्री आगमोदय समिति के कार्यकर्ताओं का ध्यान इस तथ्य की भोर श्राट हो और वे प्राकृत के विशेषज्ञ और परिश्रमी विद्वानों से संपादित करा कर समस्त ( प्रकाशित और अप्रकाशित ) श्रागम-ग्रन्थों का. एक शुद्ध (Critical ) संस्करण प्रकाशित करें, जिसकी अनिवार्य आवश्यकता है। किन्तु भी कुछ ही वर्ष हुए हमारी छपाई सफाई श्रादि बाह्य शरीर की सजावट किसी में भादर्श-पुस्तकों के पाठान्तर देने इस तरह हस्त लिखित और मुद्रित प्राकृत ग्रन्थ प्रायः श्रशुद्ध होने के कारण आवश्यकतानुसार एकाधिक हस्त लिखित पुस्तकों का अन्य-ग्रंथों में उद्धृत उन्हीं पाठों का और भिन्न-भिन्न संस्करणों का सावधानी से निरीक्षण करके उनमें से शुद्ध प्राकृत शब्दों का तथा एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न परन्तु शुद्ध रूपों का हो यहाँ ग्रहण किया गया है और अशुद्ध शब्द या रूप छोड़ दिए गए हैं। और जिस ग्रन्थ की हो हस्त लिखित प्रति अथवा एक मुद्रित संस्करण पाया गया है उसमें रही हुई अशुद्धियों का भी संशोधन यथामति किया गया है और संशोधित शब्दों को ही इस कोष में स्थान दिया गया है । साधारण स्थलों को छोड़ कर खास खास स्थानों में ऐसी प्रशुद्धियों का उल्लेख भी उन पाठों को उद्धृत करके किया गया है, जिससे विद्वान् पाठक को मेरी की हुई शुद्धि की योग्यता या प्रयोग्यता पर विचार करने की सुविधाहो । इस प्रकार जैसे मूल प्राकृत शब्दों की अशुद्धियों के संशोधन में पूरी सावधानी रक्खी गई है वैसे ही आधुनिक विद्वानों की की हुई छाया (संस्कृत प्रतिशब्द) और अयं को भूलों को सुधारने की भी पूरी कोशिश की गई है ध्यान दिया गया है । मुझे यह जानकर संतोष हुआ है कि मेरे इस प्रयत्न की विद्वान् तक ने की है। सारांश यह कि इस कोष को शुद्ध बनाने में संपूर्ण प्राकृत के सुप्रसिद्ध जर्मन कदर भी प्रोफेसर ल्योमेन जैसे २ कागज, क्योंकि १. देखो मगर डम्म भगोरसम्भव, अतिसुखसमुदय, धम्मबिंदु प्रमत्तमयपरिक्षा विपरिक्षा, (?) योगात्त जागा प्रभूति शब्दों के रेफरेंस २. देखो अन्यत्र उद्धृत किए हुए इस ग्रंथ विषयक अभिप्रायों में रॉयल एसियाटिक सोसाईटी के जर्नल में प्रकाशित प्रो. ल्युमेन का अभिप्राय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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