SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुमपत्तए पण्डुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए ॥ रात्रियाँ बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर | तिण्णोहु सि अण्णवं महं, किं अभितुर पुण चिट्ठसि तीरमागओ ! गमित्तए । पारं तु महासागर को तैर चुका है, अब तट पर आकर क्यों बैठ गया ? उस पार पहुँचने के लिए शीघ्रता कर । - उत्तराध्ययन ( १० / ३४) मा वन्तं पुणो वि आइए । वमन किये हुए काम भोगों को फिर से मत पी । - उत्तराध्ययन ( १० / १ ) अवसोहिय ओइण्णो सि पह गच्छसि मग्गं विसोहिया । काले कालं विहरेज रट्ठे, बलाबलं अपने बलाबल को तौलकर समयोचित राष्ट्र / विश्व में विहरण करो । ७४ ] - उत्तराध्ययन ( १० / २६ ) काँटों से भरे संकीर्ण मार्ग को छोड़ कर तू विशाल सत्पथ पर चला आया है । दृढ़ निश्चय के साथ उसी मार्ग पर चल । कटगापहैं, महालयं, Jain Education International 2010_03 - उत्तराध्ययन ( १० / ३२ ) जाणिय अप्पणो य । कर्त्तव्य का पालन करते हुए अपणा अणाहो सन्तो, कहं नाहो भविस्ससि ? जब तू स्वयं अनाथ है, तो दूसरों का नाथ कैसे हो सकता है ? - उत्तराध्ययन ( २१ / १४ ) - उत्तराध्ययन ( २० / १२ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy