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________________ उत्तमगुणाण धामं, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । तचाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥ तुम निश्चयपूर्वक यह जानो कि जीव उत्तम गुणों का व्याश्रय, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और सब तत्वों में परम तत्व है । - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( २०४ ) वि होदि अप्पमत्तो, ण पमन्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भणंति सुद्ध, णाओ जो सो उ सो चेव ॥ आत्मा ज्ञायक है । जो ज्ञायक होता है वह न अप्रमत होता है और न प्रमत्त । जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता वह शुद्ध होता है । आत्मा ज्ञायक रूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है, उसमें ज्ञे यकृत अशुद्धता नहीं है। - समयसार (६) ५ जं इच्छसि अप्पणत्तो, जं च न इच्छसि अप्पणन्तो । तं इच्छसि परस्स वि, एत्तियगं जिणसासणयं ॥ जो अपने लिए चाहते हो वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिये, जो अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिये-बस इतना मात्र जिनशासन है । - बृहत्कल्पभाष्य ( ४५८४ ) जो समस्त प्राणियों को का बन्ध नहीं होता है । आत्मोपम्यता Jain Education International 2010_03 सव्वभूयप्प भूयस सम्मं भूयाई पासओ, पावं कम्मं न बंधइ । अपनी आत्मा के समान देखता है, उसे पापकर्म - बृहत्कल्पभाष्य ( ४५८६ ) [ ६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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