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________________ पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं । कि बहिरा मित्तमिच्छसि ? मानव ! तु स्वयं ही अपना मित्र है। तु बाहर में क्यों किसी सखा की खोज कर रहा है ? -आचाराङ्ग ( १/३/३) बंधप्पमोक्खो अज्झत्थेव । वस्तुतः अन्तर् में ही बंधन और अन्तर में ही मोक्ष है । -आचारांग (१/५/२) जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया । जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । -आचारांग ( १/५/५) अहमिक्को खलु सुद्धो, दसणणाणमइओ सदाऽरूवी। मैं एक शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूँ। -समयसार (३८) इंदो जीवो सव्वोवलद्धि भोगपरमेसत्तणओ। सभी उपलब्धि और भोग के उत्कृष्ट ऐश्वर्य के कारण प्रत्येक जीव -विशेषावश्यक-भाष्य ( २६६३) जो झायइ अप्पाणं, परमसमाही ह तस्स ॥ जो अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसे परमसमाधि की प्राप्ति होती है। -नियमसार (१२३) चित्तं तिकालविसयं । आत्मा की चेतना त्रिकाल है। _ -दशवैकालिक-नियुक्ति-भाष्य ( १६ ) णिच्चो अविणासि सासओ जीवो। आत्मा नित्य, अविनाशी तथा शाश्वत है । –दशवैकालिक-नियुक्ति-भाष्य (४२) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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