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________________ जो सहस्सं सहस्साणं, संगाये हुज्जए जिए । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परसो जओ॥ भयंकर युद्ध में सहस्रों-सहस्र दुर्दान्त शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने आपको जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है । - उत्तराध्ययन (६/३४) पंचिन्दियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ॥ पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये दुर्जेय हैं, लेकिन एक आत्मा पर विजय पा लेने के बाद इन सब पर विजय पा ली जाती है । एगप्पा अजिए सत्तू । स्वयं की असंयत आत्मा ही स्वयं का एकमात्र शत्रु है । -उत्तराध्ययन ( २३/३८) अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ। अप्पणामेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥ बाहरी स्थूल शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध कर! आत्मा को आत्मा के द्वारा जीतनेवाला ही वास्तव में पूर्ण सुखी होता है। -उत्तराध्ययन (६/३५) अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणसासिउं। जो अपनी आत्मा को अनुशासन में रखने में समर्थ नहीं है, वह दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? -सूत्रकृताङ्ग ( १/१/२/१७) जे एगं नामे, से बहुं नामे । जो स्वयं को नमा लेता है, वह सकल जगत को नमा लेता है। -आचाराङ्ग ( १/३/४ ) [ ५३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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