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________________ ज्ञानी कर्म-क्षय के लिए उद्यत हुआ है, हिंसा के लिए नहीं । वह निश्छलभाव से अहिंसा के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह अप्रमत्त मुनि अहिंसक होता है। भगवती-आराधना (८०३) तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि । जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नस्थि ॥ जैसे जगत् में मेरुपर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है । -भक्तपरिज्ञा (६१) नारंभेण दयालुया। हिंसक दयालु नहीं हो सकता । –बृहत्कल्पभाष्य ( ३३८. ) आचरण सारो परूवणाए चरणं, तस्स वि य होइ निव्वाणं । प्ररूपणा का सार है-'आचरण' और 'आचरण' का सार है-'निर्वाण' । -आचारांगनियुक्ति ( १७) भणन्ता अकरेन्ता य, बन्धमोक्खोपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं ॥ जो केवल बोलते हैं, करते कुछ नहीं, वे बन्ध और मोक्ष की बातें करनेवाले दार्शनिक केवल वाणी की वीरता से अपने आपको आश्वासन देने वाले हैं। -~~-उत्तराध्ययन (६/६) धीरस्स पस्स धीरत्तं, सव्वधम्माणुवत्तिणो। चिच्चा अधम्म धम्मिठे, देवेसु उववजई ॥ आचरण द्वारा सत्य-धर्म का अनुसरण करनेवाले धीर पुरुषों की धीरता [ ४५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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