SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथार्थतः जीव-हिंसा पाप-परम्परा को चलाती है, क्योंकि हिंसादिजनित पापकार्य अन्त में अनेक दुःखों का स्पर्श कराते हैं । -सूत्रकृताङ्ग ( १/८/७) हिंसप्पसूताई दुहाइ मंता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि । हिंसा से उत्पन्न अशुभ कर्म अत्यन्त दुःखोत्पादक हैं, वैर-परम्परा बांधनेवाले और महान भयजनक हैं। -सूत्रकृताङ्ग ( १/१०/२१) सव्वाहि अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिलेहिया । सव्वे अकंतदुक्खा य, अतो सव्वे न हिंसया॥ बुद्धिमान् पुरुष सभी अनुकूल संगत युक्तियों से सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर जाने, देखें कि सभी जीव दुःख से घबराते हैं, सभी सुखलिप्सु हैं, अतः किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। -सूत्रकृताङ्ग ( १/११/९) भूतेहिं न विरुज्झेज्जा। किसी भी जीव के साथ वैर-विरोध न करे । -सूत्रकृताङ्ग ( १/१५/४ ) मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णथि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। बाहर में जीव मरे अथवा जिए, अयताचारी-प्रमादी को भीतर में हिंसा निश्चित है, किन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवाला है, उसे प्राणी की हिंसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है । --प्रवचनसार ( ३/१७) काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ । अपने द्वारा किसी जीव को पीड़ा पहुँचाने पर भी जिसके मन में पछतावा नहीं होता, उसे निर्दय कहा जाता है । -बृहत्कल्पभाष्य ( १३१६) [ ३६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy