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________________ तहेव अविणीयप्पा लोगंसिनरनारिओ। दीसंति दुहमेहता, छाया विगलितेंदिया । दंडसत्थपरिजुण्णा, असम्भवयणेहि य । कलुणा विवन्नछंदा, खुप्पिवासाए परिगया । लोक में जो पुरुष और स्त्री अविनीत होते हैं, वे क्षत-विक्षत या दुर्बल, इन्द्रिय-विकल, दण्ड और शस्त्र से जर्जर, असभ्य वचनों के द्वारा तिरस्कृत, करुण, परवश, भूख और प्यास से पीड़ित होकर दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं। -दशवैकालिक (६/२/७) थद्धो णिरोवयारी, अविणीयो गन्विओ जिरवणामो। साहूजणस्स गरहिओ, जणे वि वयणिज्जयं लहइ ।। गुरुओं के आगे नतमस्तक न होनेवाले अविनीत, अभिमानी एवं निरुपकारी मनुष्य की साधुओं से लेकर समाज तक में बड़ी निन्दा होती है । --सार्थपोसहसज्झायसूत्र ( २६ ) अशरण वित्त पसवो य नाइओ, तं बाले सरणं त्ति मन्नई। एते मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विजई॥ अज्ञानी मनुष्य, धन, पशु एवं नाते-रिश्तेदारों को अपनी शरण मानता है और समझता है कि 'ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ', परन्तु इनमें से कोई भी आपत्ति-काल में उसे त्राण अथवा शरण नहीं दे सकता । ___ --सूत्रकृताङ्ग ( १/२/३/१६) वरभत्तपाणण्हाणय-सिंगार विलेवणेहिं पुट्ठो वि । निअपहुणो विडहतो, सुणएण वि न सरिसो देहो ॥ उत्तम भोजन, पान, स्नान, शृङ्गार, लेपन आदि से पोषण-पुष्टि करने के पश्चात भी स्वयं के स्वामी को छोड़कर चले जानेवाले श्वान के जैसा गुण भी इस देह में नहीं है । -आत्मावबोधकुलक ( १७) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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