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________________ परिग्गहनिविट्ठाणं वरं तेसि पचड्ढ़ई । जो संग्रहवृत्ति में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर-भाव हो बढ़ाते हैं । सूत्रकृताङ्ग ( १/६/३) जे ममाइयमई जहाइ, से जहाइ ममाइयं । जो ममत्वबुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुतः ममत्व या परिग्रह का त्याग करता है। -आचाराङ्ग ( १/२/६ ) अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो । इच्छामुक्ति को ही अपरिग्रह कहा है । -समयसार ( २१२) सव्वेसिं गंथाणं तागो णिरवेक्ख भावणापुव्वं । निरपेक्ष भावना पूर्वक सर्व परिग्रहों का त्याग करना चाहिए । -नियमसार (६०) लोभ-कलि-कसाय-महक्खंधो, चिंतासयनिचिय विपुलसालो। लोभ, क्लेश और कषाय परिग्रह-वृक्ष के स्कन्ध हैं। जिसकी चिन्ता रूपी सैकड़ों ही सघन और विपुल शाखाएँ हैं । ___-प्रश्नव्याकरणसूत्र ( १/५ ) विरया परिग्गहाओ, अपरिमिआओ अणंत तण्हाओ। बहुदोस संकुलाओ, नरयगइगमण पंथाओ॥ अपरिमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है, बहुत दोषयुक्त तथा नरकगति का मार्ग है । - उपदेशमाला ( २४४) संगनिमित्त मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं । सेवइ मेहुण मुच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो ॥ मनुष्य परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता है । -भक्तपरिज्ञा (१३२) २२ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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