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________________ सम्पूर्ण ग्रथ-परिग्रह से मुक्त, शीतीभूत प्रसन्नचित्त साधक जेसा मुक्तिसुख पाता है, वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता। -भक्त-परिज्ञा ( १३४) सेवक भूमिसयणं जरवीरबंधणं बंभचेरयं भिक्खा। मुणिचरियं दुग्गयसेवयाण धम्मो परं नत्थि ॥ दरिद्र सेवक भूमि पर शयन करता है, जीर्ण चीर बांधता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है और भिक्षा मांगता है। यद्यपि इस प्रकार वह मुनियों का आचरण करता है, परन्तु मुनियों के समान उसे धर्म नहीं प्राप्त होता है। - वज्जालग्ग (१६/२) जइ नाम कह वि सोक्खं होइ तुलग्गेण सेवयजणस्स। तं खवणयसग्गारोहणं व विग्गोवयसपहिं ॥ यदि संयोग से सेवक-जनों को किसी प्रकार सुख भी मिलता है, तो वह क्षपणक ( साधु ) के स्वर्गारोहण के समान अनेक कष्ट झेलने पर । -वज्जालग्ग ( १६/३) देहि त्ति कह नु भण्णइ सुपुरिसववहारवाहिरं वयणं । सेविजइ विणएणं एसच्चिय पत्थणा लोए ॥ 'दे दो' यह बात किसी से क्यों कही जाय ! यह तो सत्पुरुषों के व्यवहार से बाहर है। मैं विनयपूर्वक सेवा करता हूँ-संसार में यही मेरी प्रार्थना है अर्थात् सेवा करना ही मेरी याचना है, मुँह से कुछ माँगना व्यर्थ है । -वज्जालग्ग ( १६/-) स्पर्श महुं मुहं मोह-गुणे जयन्तं, अणग-रूवा समणं वरंतं । फासा फुसन्ती असमंजसं च, न तेसु भिक्खु मणसा पउस्से ॥ २६० ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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