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________________ समत्वयोग निंद पसंसासु समो, समो य माणावमाण कारीलु। समसयण पर (रि) यण मणो सामाइय संगओ जीवो। . निंदा और प्रशंसा, मान और अपमान, स्वजन और परजन सभी में जिसका मन समान है, उसी जीव को सामायिक होती है, समभाव की साधना होती है । -संबोधसत्तरि ( २५) जो समो सम्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इई केवलिभासियं ॥ जो मुनि त्रस व स्थावर सभी भूतों अर्थात् देहधारियों में समता-भाव युक्त होता है, उसको सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है । -विशेषावश्यक-भाष्य ( २६६०) सावज जोगं परिक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्थधम्मा परमंति नच्चा, कुज्जाबुहो आयहियं परत्था । सावद्य-योग से अर्थात पाप-कार्यों से अपनी रक्षा करने के लिए पूर्णकालिक सामायिक या समता ही प्रशस्त है ( परन्तु वह प्रायः साधुओं को ही सम्भव है )। गृहस्थों के लिए भी वह परम धर्म है, ऐसा जानकर स्व-पर के हितार्थ बुधजन सामायिक अवश्य करें। -विशेषावश्यक-भाध्य ( २६८१). सामाइयं उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है । इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए। -विशेषावश्यक-भाष्य ( २६६०), सत्रु-मित्र-मणि-पहाण-सुवण्ण-मट्टियासु। राग-देसा भाचो समदाणाम । २७६ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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