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________________ वेश्या-गमन कारुय-किराय-चंडाल-डोंब पारसियाण मुच्छि8। सो भक्खेइ जो सह वसइ एयरतिं पि वेस्सार ॥ जो कई भी मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ निवास करता है, वह वस्तुतः लुहार, चमार, भील, चण्डाल, भंगी और पारसी आदि नीच लोगों का जूठा खाता है, क्योंकि वेश्या इन सभी लोगों के साथ समागम करती है। -वसुनन्दि श्रावकाचार (८८) रत्तं णाऊण णरं सव्वस्सं हरइ चण सएहि । काऊण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मट्टि परिसेसं ॥ वेश्या, मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों प्रिय वचनों से उसका सर्वस्व हर लेती है और उसे अस्थि-चर्म परिशेष करके छोड़ देती है ।। -वसुनन्दि श्रावकाचार (८६) माणी कुलजो सूरो वि कुणइ दासत्तणं पिणीचाणं । वेस्ला करण बहुगं अवमाणं सहइ कामंधो॥ मानी, कुलीन और शूरवीर पुरुष भी वेश्या में आसक्त होने से नीच पुरुषों की दासता को करता है, और इस प्रकार वह कामान्ध होकर वेश्या के द्वारा किये गये अपमानों को सहन करता है । –वसुनन्दि श्रावकाचार (६१) जे मजमंस दोसा वेस्सा गमणम्मि होति ते सव्वे ॥ जो दोष मद्य-मांस के सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते हैं। --वसुनन्दि श्रावकाचार (६२) सव्वंगरागरत्तं दसइ कणवीरकुसुम सारिच्छं। गब्भे कहवि न रत्तं वेसाहिययं तहच्चेव ॥ वेश्या का हृदय कनेर के पुष्प के समान होता है। कनेर के पुष्प का सम्पूर्ण भाग रक्त ( लाल या रंगा ) होता है, पर भीतर रंग नहीं रहता है । २४४ । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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